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अन्यव्यावृत्ति (प्रतिषेध) के बिना उसकी प्रवृत्ति में संकरता का प्रसंग अनिवार्य होगा। दूसरे, उस परिस्थिति में वस्तु का जानना न जानने के समान ही रहनेवाला है। वह प्रतिषेध को ही विषय करे, यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि विधि को जाने बिना 'यह इससे भिन्न है' इसका जानना शक्य नहीं है। और विधि व प्रतिषेध भिन्न रूप में दोनों ही प्रतिभासित हों, यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि उस स्थिति में दोनों के विषय में पृथक्-पृथक् उद्भावित दोषों का प्रसंग प्राप्त होनेवाला है। इससे सिद्ध है कि प्रमाण का विषय विधि-प्रतिषेधात्मक वस्तु है । इसलिए न तो प्रमाण को नय कहा जा सकता है और न नय को भी प्रमाण कहा जा सकता है। __ आगे धवलाकार ने 'प्रमाण-नयैरधिगमः' इस तत्त्वार्थसूत्र (१-६) के साथ अपने अभिमत का समर्थन करते हुए कहा है कि हमारा यह व्याख्यान उस सूत्र के साथ भी विरोध को प्राप्त नहीं होता है। कारण यह है कि प्रमाण और नय से जो वाक्य उत्पन्न होते हैं वे उपचार से प्रमाण और नय हैं । और उनसे जो दो प्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है वह भी यद्यपि विधिप्रतिषेधात्मक वस्तु को विषय करने के कारण प्रमाणरूपता को प्राप्त है, फिर भी कार्य में कारण के उपचार से उसे भी सूत्र में प्रमाण और नय रूप में ग्रहण किया गया है। नय वाक्य से उत्पन्न होनेवाला बोध प्रमाण ही है, वह नय नहीं है। इसके ज्ञापनार्थ सूत्र में 'उन दोनों से वस्त का अधिगम होता है' ऐसा कहा जाता है।
विकल्प के रूप में धवला में यह भी कहा गया है-अथवा जिसने बोध को प्रधान किया है उस पुरुष को प्रमाण और जिसने उस बोध को प्रधान नहीं किया है उस पुरुष को नय जानना चाहिए । अधिगम वस्तु का ही किया जाता है अवस्तु नहीं, यह स्वीकार करना चाहिए; अन्यथा प्रमाण के भीतर प्रविष्ट हो जाने से नय के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है (पु. ६, पृ० १६२-६४)।
इस प्रकार नय के प्रसंग में विविध प्रकार से उसके स्वरूप का निरूपण कर धवलाकार ने उसके द्रव्यार्थिक. और पर्यायार्थिक इन दो मूल भेदों के साथ तत्त्वार्थसूत्र में निर्दिष्ट नगमादि सात नयों के विषय में दार्शनिक दृष्टि से पर्याप्त विचार किया है।'
नय की विस्तार से प्ररूपणा के पश्चात् धवलाकार ने इस देशामर्शक सूत्र (४,१,४५) के द्वारा कर्मप्रकृतिप्राभूत के इन उपक्रमादि चारों अवतारों की प्ररूपणा की है यथा
सूत्र में "अग्रायणीय पूर्व के अन्तर्गत पांचवें 'वस्तु' अधिकार के चौथे प्राभूत का नाम कर्मप्रकृति है। उसमें चौबीस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं" ऐसा जो कहा गया है उसके द्वारा पाँच प्रकार के उपक्रम की प्ररूपणा है । यह उपक्रम शेष तीन अवतारों का उपलक्षण है, इसलिए उनकी भी प्ररूपणा यहां देखना चाहिए, क्योंकि वह उन तीन का अविनाभावी है। यह अग्रायणीयपूर्व ज्ञान, श्रुत, अंग, दृष्टिवाद, पूर्व और पूर्वोक्त कर्मप्रकृति के भेद से छह प्रकार का है। कारण यह कि के छहों पूर्व-पूर्व के अन्तर्गत हैं, इसलिए यहां शिष्यों की बुद्धि को विकसित करने के लिए उन छहों के विषय में पृथक्-पृथक् चार प्रकार के अवतार की प्ररूपणा की जाती है। तदनुसार यहाँ आगे धवला में ज्ञानादि छह के विषय में यथाक्रम से उक्त चार प्रकार के अवतार की प्ररूपणा हुई है (पु. ६, पृ० १८४-२३१) ।
१. नय के विविध लक्षणों की जानकारी के लिए 'जैन लक्षणवली' भा० ३, प्रस्तावना पृ०
११-१४ में 'नय' के प्रसंग को देखना चाहिए।
४७०/षदखण्डागम-परिशीलन
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