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________________ दिया है कि तीर्थंकरके पादमूल में दर्शनमोह की क्षपणा को प्रारम्भ करते हैं, अन्यत्र नहीं। विकल्प के रूप में उन्होंने वहाँ आगे यह भी कहा है कि अथवा 'जिन' ऐसा कहने पर चौदह पूर्वो के धारकों को ग्रहण करना चाहिए, 'केवली' ऐसा कहने पर तीर्थकर कर्म के उदय से रहित केवलियों को ग्रहण करना चाहिए, तथा 'तीर्थंकर' ऐसा करने पर तीर्थकर नामकर्म के उदय से उत्पन्न आठ प्रतिहार्यों और चौंतीस अतिशयों से सहित केवलियों को ग्रहण करना चाहिए। इन तीनों के भी पादमूल में दर्शनमोह की क्षपणा को प्रारम्भ करते हैं।' विशेषता इन दोनों ग्रन्थों में जो विशेषता दटिगोचर होती वह इस प्रकार है १. समस्त षट्खण्डागम जहाँ, कुछ अपवाद को छोड़कर, गद्यात्मक सूत्रों में रचा गया है वहाँ कषायप्राभृत गाथाओं में ही रचा गया है। २. षट्खण्डागम के सूत्र अर्थ की दृष्टि से उतने गम्भीर व दुरूह नहीं है, जितने कषायप्राभूत के गाथासूत्र अर्थ की दृष्टि से गम्भीर व दूरूह हैं । यही कारण है कि षट्खण्डागम का ग्रन्थप्रमाण छत्तीस हजार (प्रथम ५ खण्डों का ६०००+छठे खण्ड का ३००००) श्लोक है, पर समस्त कषायप्राभत केवल १८० अथवा २३३ गाथाओं में रचा गया है । ग्रन्थप्रमाण में वह इतना अल्प होकर भी प्रतिपाद्य विषय का सर्वांगपूर्ण विवेचन करनेवाला है। ३. षट्खण्डागम के छह खण्डों में प्रथम खण्ड जीवस्थान और चतुर्थ वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में मंगल किया गया है, किन्तु कषायप्राभूत के प्रारम्भ में व अन्यत्र भी कहीं मंगल नहीं किया गया। ४. षट्खण्डागम में खण्डों व उनके अन्तर्गत अधिकारों आदि का कुछ उल्लेख नहीं है । बीच-बीच में वहाँ अनियत क्रम से विविध अनुयोगद्वारों का निर्देश अवश्य किया गया है। धवलाकार ने भी वहाँ खण्डों का व्यवस्थित निर्देश नहीं किया। किन्तु क० प्रा० में ग्रन्थ को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम यह निर्देश कर दिया गया है कि पाँचवें पूर्व के अन्तर्गत दसवें वस्तु नामक अधिकार में तीसरा पेज्जपाहुड (प्रेयःप्राभृत) है, उसमें कषायों का प्राभृत है-कषायों की प्ररूपणा की गई है (गा० १)। आगे कहा गया है कि एक सौ अस्सी गाथा रूप इस ग्रन्ध में पन्द्रह अर्थाधिकार हैं। उनमें जिस अर्थाधिकार में जितनी सूत्र गाथाएँ हैं उन्हें मैं (गुणधर) कहूँगा। ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए ग्रन्थकार ने आगे उन अर्थाधिकारों में यथा क्रम से सूत्र गाथाएँ व भाष्यगाथाओं की संख्या का उल्लेख भी कर दिया है (२-१२)। इस प्रकार कषायप्राभूत के कर्ता आचार्य गुणधर ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में उसके अन्तर्गत नामनिर्देश के साथ अर्थाधिकारों व उनमें रची जानेवाली सूत्रगाथाओं और भाष्यगाथाओं की संख्या का भी निर्देश कर दिया है तथा उसी क्रम से प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा भी की है। १. धवला पु० ६, पृ० २४६ २. अपवाद के रूप में वहाँ ३६ गाथा सूत्र (वेदनाखण्ड में ८, और वर्गणा खण्ड में २८)भी हैं। १४८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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