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________________ खण्डागम में कुछ क्रमव्यत्यय के साथ धवलाकार द्वारा किया गया है।' ३. षट्खण्डागम में इसी चूलिका में आगे दर्शनमोहनीय के क्षय के प्रारम्भ करने व उसकी समाप्ति के विषय में विचार करते हुए कहा गया है कि उस दर्शनमोहनीय के क्षय को प्रारम्भ करनेवाला उसके क्षय को अढाई द्वीप-समुद्रों के भीतर पन्द्रह कर्मभूमियों में, जहाँ जिन केवली तीर्थंकर होते हैं, प्रारम्भ करता है। पर उसका निष्ठापक वह चारों ही गतियों में उस दर्शनमोहनीय के क्षयका निष्ठापन करता है (सूत्र १, ६-८, ११-१२) । __ इसी अभिप्राय को व्यक्त करनेवाली गाथा कषायप्राभृत में इस प्रकार उपलब्ध होती वंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो दु । णियमा मणुसगदीए ट्ठिवगो चावि सव्वत्थ ॥११०॥ दोनों ग्रन्थगत इन उल्लेखों में बहुत कुछ समानता है। साथ ही विशेषता भी कुछ उनमें है। वह यह कि षट्खण्डागम में जहाँ मनुष्यगति का कोई उल्लेख नहीं किया गया कहाँ कषायप्राभूत में "जिन केवली तीर्थकर' का कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया है । __ हाँ, धवला में वहाँ इस प्रसंग में यह शंका उठाई गई है कि 'पन्द्रह कर्मभूमियों में' इतना मात्र कहने से वहाँ अवस्थित देव, मनुष्य और तिर्यच इन सबका ग्रहण क्यों नहीं प्राप्त होगा। इसके समाधान में वहाँ यह कहा गया है कि सूत्र में निर्दिष्ट 'कर्मभूमि' यह संज्ञा उपचार से उन मनुष्यों की है जो उन कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए हैं, इससे उनमें अवस्थित देवों व तिर्यंचों के ग्रहण का प्रसंग प्राप्त नहीं होता। इस पर पुनः यह शंका की गई है कि फिर भी तिर्यंचों के ग्रहण का प्रसंग तो प्राप्त होता ही है, क्योंकि मनुष्यों के समान तियंचों की उत्पत्ति भी वहाँ सम्भव है। इसके समाधान में यह स्पष्ट किया है कि जिनकी उत्पत्ति कर्मभूमियों के सिवाय अन्यत्र सम्भव नहीं है उन मनुष्यों का नाम ही पन्द्रह कर्मभूमि है। तिर्यंच चूंकि कर्मभूमियों के अतिरिक्त स्वयंप्रभ पर्वत के परभाग में भी उत्पन्न होते हैं, इससे तिर्यंचों का भी प्रसंग नहीं प्राप्त होता । इस प्रसंग के स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कषायप्राभूत की उसी उपर्युक्त गाथा 'उक्तं च' निर्देश के साथ उद्धृत की है। ___कषायप्राभूत में दर्शनमोह की इस क्षपणा के प्रसंग में, जहाँ तक मैं देख सका हूँ, यह कहीं नहीं कहा गया कि उसकी क्षपणा का प्रारम्भ जिन, केवली व तीर्थंकर के पादमूल में किया जाता है। पर जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, षट्खण्डागम में उसका स्पष्ट उल्लेख किया गया है। षट्खण्डागम के प्रसंगप्राप्त उस सूत्र में उपयुक्त जिन, केवली और तीर्थंकर इन पदों की सार्थकता को प्रकट करते हुए धवलाकार ने प्रथम तो यह कहा है कि देशजिनों का प्रतिषेध करने के लिए सूत्र में केवली' को ग्रहण किया है तथा तीर्थकर कर्म से रहित केवलियों का प्रतिषेध करने के लिए 'तीर्थकर' को ग्रहण किया गया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर १. धवला पु० ६, पृ० २०६-२२२; उनका स्पष्टीकरण चूर्णिकार ने कषायप्राभूत में गाथोक्त क्रम से ही किया है ।--क० पा० सुत्त पृ० ६१५-३० २. धवला पु० ६, पृ० २४६ ३. सूत्र १, ६-८, १०-११ (पु० ६, पृ० २४३) षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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