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________________ संख्यातवर्षायुष्कों व असंख्यातवर्षायुष्कों में भी उसे उपशमाता है; इनके विपरीत एकेन्द्रियविकलेन्द्रियों व असंज्ञियों आदि में नहीं उपशमाता । " कषायप्राभृत में भी लगभग इसी अभिप्राय को व्यक्त किया गया है । इस प्रसंग में इन दोनों का मिलान किया जा सकता है— उपसातो कहि उपसामेदि ? चदसु वि गदीसु उवसामेदि । चट्टसु वि गदीसु उवसामेंतो पंचिदिए उवसामेदि, णो एइंदिय-विगल दियेसु । पचिदिएस उवसामेंतो सण्णीसु उवसामेदि, ण असण्णी | सणीसु उवसामेंतो गन्भोवक्कं तिएस उबसामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु । गग्भोवकंतिसु उवसामेंतो पज्जत्तएसु उवसामेदि, जो अपज्जत्तएसु । पज्जत्त एसु उवसामेंतो संखेज्जवरसाउगेसु वि उवसामेदि असंखेज्जवस्साउगेसु वि । - ष० ख० सूत्र 8 (पु० ६, पृ० २३८ ) । कषायप्राभृत का भी यह उल्लेख देखिए दंसणमोहस्सुवसामगो दु चदुसु वि गदीसु बोद्धव्वो । पंचिदिओ य सण्णी णियमा सो होइ पज्जत्तो ||१५|| षट्खण्डागम के सूत्र में जहाँ शब्दों की पुनरुक्ति अधिक हुई है वहाँ कषायप्राभृत की इस गाथा में प्रसंग प्राप्त उन शब्दों की पुनरावृत्ति न करके लगभग उसी अभिप्राय को संक्षेप में प्रकट कर दिया गया है, जो उसकी सूत्र रूपता का परिचायक है । षट्खण्डागम के उस सूत्र में उपयुक्त केवल गर्भज और संख्यात असंख्यातवर्षायुष्क इन दो विशेषणों का उल्लेख यहाँ नहीं किया गया है। इनमें संख्यात - असंख्यात वर्ष का उल्लेख न करने पर भी उसका बोध 'चतुर्गति' के निर्देश से हो जाता है, क्योंकि चतुर्गति के अन्तर्गत मनुष्यगति व तिर्यंचगति सामान्य में वे दोनों आ जाते हैं । यह भी यहाँ स्मरणीय है कि पूर्व में, कषायप्राभृत की जिन चार मूलगाथाओं का उल्लेख किया गया है उनके अन्तर्हित अर्थ के विशदीकरण में जिन १५ (६५ - १०६) गाथाओं का उपयोग किया गया है उनमें यह प्रथम गाथा है । इन गाथाओं के प्रारम्भ में उनकी उत्थानिका में चूर्णिकारने इतना मात्र कहा है कि आगे इन मूल गाथासूत्रों का स्पर्श करना योग्य है—उनका विवरण दिया जाता है। -क० पा० सुत्त, पृ० ६३० कषायप्राभृत की वे ९५-१०६ गाथाएँ ' एत्थुवउज्जतीम्रो गाहाओ' इस सूचना के साथ षट्खण्डागम की उस जीवस्थान- चूलिका में उसी क्रम से उद्धृत की गई हैं। केवल गाथा १०२ व १०३ में क्रमव्यत्यय हुआ है । " दर्शनमोह की उपशामना के प्रसंग में ऊपर कषायप्राभृत की जिन चार मूल गाथाओं को उद्धृत किया गया है उनमें सर्वविशुद्ध 'परिणाम' के विषय में पृच्छा की गई है । चूर्णिकार ने परिणाम को विशुद्ध कहा है । षट्खण्डागम में उसे सर्वविशुद्ध कहा गया है (सूत्र १,६ - ८, ४) । इसके अतिरिक्त उपर्युक्त मूल गाथाओं में योग, कषाय, उपयोग, लेश्या, वेद और पूर्वबद्ध कर्मों आदि के विषय में जो पृच्छा को उद्भावित किया गया है उस सबका स्पष्टीकरण षट् Jain Education International १. सूत्र १, ६-८, ३-६ ( ५० ६ ) २. क० पा० सुत्त पृ० ६३० ३८ व धवला पु० ६, पृ० २३८-४३ १४६ / षट्खण्डागम-परिशीलन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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