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________________ द्रष्टव्य हैं वंसणमोहउवसामगस्स परिणामो केरिसो भवे । जोगे कसाय उवजोगे लेस्सा वेदो य को भवे ॥६॥ काणि वा पुव्व बद्धाणि के वा अंसे णिबंधदि । कदि आवलियं पविसंति कदिण्हं वा पवेसगो ॥१२॥ के अंसे झीयदे पुथ्वं बंधेण उदएण वा। अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहिं ।।६३॥ किंटिदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा । ओवट्टे दूण सेसाणि कं ठाणं पडिवज्जदि ॥१४॥ इन गाथाओं की व्याख्या करते हुए चूर्णिकार ने उन्हें सूत्रगाथाएँ कहा है तथा उनमें निर्दिष्ट पृच्छाओं का स्पष्टीकरण विभाषा" कहकर यथाक्रम से किया है । यथा एदाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ अधापवत्तकरणस्स पढमसमए परुविदवाओ। तं जहा। दसणमोहउवसामगस्स केरिसो परिणामो भवे' त्ति विहासा । तं जहा। परिणामो विसुद्धो। पुव्वं पि अंतोमुहत्तप्पहुडि अणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झमाणो आगदो। इसी प्रकार से उन्होंने आगे पूर्वनिर्दिष्ट उन सभी पृच्छाओं को स्पष्ट किया है।' षट्खण्डागम में पूर्वोक्त जीवस्थान-चूलिका गत पृच्छासूत्र के अन्तर्गत उन पृच्छाओं में प्रथम पृच्छा के स्पष्टीकरण में सूत्रकार ने 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' आदि पाँच चूलिकाओं को रचा है। इस स्पष्टीकरण का उल्लेख उन्होंने 'विभाषा' के नाम से इस प्रकार किया है--कदि काओ पगडीओ बंधदि त्ति जं पदं तस्स विहासा। सूत्र २ (पु० ६, पृ० ४)। धवलाकार ने भी ५वीं चूलिका के अन्त में यह सूचना की है—एवं 'कदिकाओ पयडीओ बंधदि' त्ति जं पवंतस्स वक्खाणं समतं । (पु० ६, पृ० १४४) __इस प्रकार पृच्छापूर्वक विवक्षित अर्थ के स्पष्टीकरण की यह पद्धति दोनों ग्रन्थों में समान रूप से देखी जाती है। २. उपर्युक्त जीवस्थान-चूलिका के अन्तर्गत नौ चूलिकाओं में आठवीं सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका है । वहाँ प्रारम्भ में यह कहा गया है कि प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव जब ज्ञानावरणीय आदि सब कर्मों की स्थिति को अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण बाँधता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । आगे उसकी योग्यता को प्रकट करते हुए कहा गया है कि वह पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि और सर्वविशुद्ध होता है । इस प्रकार से दर्शनमोहनीय को उपशमाता हुआ वह चारों गतियों में पंचेद्रियों, संज्ञियों, गर्भोपक्रान्तिकों, पर्याप्तों तथा .. 'विभाषा' का अर्थ धवला और जयधवला में इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है 'विविहा भासा विहासा, परूवणा, णिरूवणा, वक्खाणमिदि एगट्ठो।' धवला पु० ६, पृ० ५ 'सुत्तेण सूचिदत्थस्स विसेसियूण भासा विहासा विवरणं त्ति वृत्तं होदि ।' जयध० (क०पा० प्रस्तावना पृ २२ का टिप्पण)। २. क० पा० सुत्त, पृ० ६१५ ३. वही, पृ० ६१५-३० ४. सूत्र १, ६-६, १ (पृ० १४५) व १, ६-८, १-२ (पृ० २०३) भी द्रष्टव्य हैं। षट्खण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना / १४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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