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________________ हैं। वह प्रेयोद्वेषप्राभृत पाँचवें ज्ञानप्र वादपूर्व के अन्तर्गत जो वस्तु नामक बारह अधिकार हैं उनमें दसवें वस्तु अधिकार के बीस प्राभृतों में तीसरा प्राभृत है । गुणधर भट्टारक ने सोलह हजार पद प्रमाण इस प्रेयोद्वेषप्राभृत का उपसंहार कर १८० गाथाओं में प्रकृत कषायप्राभूत की रचना की है । ये गाथासूत्र आचार्यपरम्परा से आते हुए आर्यमंक्षु और नागहस्ती को प्राप्त हुए । उनके पादमूल में इन गाथा सूत्रों को सुनकर यतिवृषभ भट्टारक ने उनपर चूर्णिसूत्र रचे । इस प्रकार प्रकृत कषायप्राभृत के रचयिता गुणधर भट्टारक हैं ।' 1 पूर्वापरवर्तित्व इन दोनों ग्रन्थों में पूर्ववर्ती कौन है, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। फिर भी कषायप्राभृत के गाथासूत्रों की संक्षिप्तता व गम्भीरता को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता कि कषायप्राभृत षट्खण्डागम के पूर्व रचा जा चुका था । आचार्य इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार में आचार्य गुणधर और धरसेन के पूर्वापरवर्ति के विषय में अपनी अनाजकारी व्यक्त की है । यथा गुणधर-धरसेनन्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्वयकथकागम-मुनिजनाभावात् ।। १५१ ।। समानता इन दोनों ग्रन्थों में रचनापद्धति व विषयविवेचन की दृष्टि से जो कुछ समानता दिखती है, उसका यहाँ विचार किया जाता है— १. षट्खण्डागम में जीवस्थान - चूलिका के प्रारम्भ में यह सूत्र आया है "कदि काओ पयडीओ बंधदि, केवडि कालट्ठिदिएहि कम्मेहि सम्मत्तं लब्भदि वा ण लम्भदि बा, केवचिरेण कालेण वा कदि भाए वा करेदि मिच्छत्तं उवसामणा वा खवणा वा केसु व खेत्ते कस्स मूले केवडियं वा दंसणमोहणीयं कम्मं खवेंतस्स चारितं वा संपुष्णं पडिवज्जंतस्स ||१|| " यह पृच्छासूत्र है । इसमें निर्दिष्ट पृच्छाओं के अन्तर्गत अर्थ के स्पष्टीकरण में स्वयं ग्रन्थकार द्वारा नौ चूलिकाएँ रची गई हैं । ग्रन्थरचना की यह पद्धति कषायप्राभृत में देखी जाती है । वहाँ प्रथमतः पृच्छा के रूप में मूल सूत्रगाथाएँ रची गई हैं और तत्पश्चात् उन पृच्छात्रों में निहित अर्थ के स्पष्टीकरणार्थ भाष्यगाथाएँ रची गई हैं । उदाहरणस्वरूप सम्यक्त्व अर्थाधिकार की ये चार सूत्रगाथाएँ १. जयधवला भा० १, पृ० ८७-८८ व भा०५, पृ० ३८७-८८ तथा धवला पु० १२, पृ० २३१-३२ २. ऐसी गाथाओं को चूर्णिकार ने मूलगाथा व भाष्यगाथा ही कहा है। जैसे -- गाथा १२४ की उत्थानिका में 'तत्थ सत्त मूलगाहाओ'; गाथा १३० की उत्थानिका में 'एत्तो विदिया मूलगाहा'; गा० १४२ की उत्थानिका में 'एतो तदियमूलगाहा' इत्यादि । गाथा १३६-४१ की उत्थानिका में 'तदिये अत्थे छन्भासगाहाओ' इत्यादि । क०पा० सुत्त, पृ० ७५६-६७ । जयधवला में इन मूलगाथाओं को सूत्रगाथाएँ कहा गया है । १४४ / षट्खण्डागम- परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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