________________
षटखण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना
विषयविवेचन आदि की अपेक्षा प्रस्तुत षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से कहाँ कितनी समानता है, इसका कुछ परिचय यहाँ कराया जाता है।
१. षटखण्डागम व कषायप्राभूत
षट्खण्डागम और कषायप्राभूत ये दोनों ही महत्त्वपूर्ण प्राचीन आगम ग्रन्थ हैं। इन्हें परमागम माना जाता है । इनमें प्रथम का सीधा सम्बन्ध जहाँ दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत १४ पूर्वो में दूसरे अग्रायणीय पूर्वश्रुत से रहा है वहाँ दूसरे का सीधा सम्बन्ध उन १४ पूर्वो में पाँचवें ज्ञानप्रवाद पूर्वश्रुत से रहा है, यह पूर्व में स्पष्ट किया ही जा चुका है।
पट्खण्डागम की अवतारविषयक प्ररूपणा करते हुए उसकी टीका धवला में कहा गया है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् केवली व श्रुतकेवलियों आदि के अनुक्रम से द्वादशांग श्रुत उत्तरोत्तर क्षीण होता गया। इस प्रकार उसके क्रमशः क्षय को प्राप्त होने पर सब अंगपर्यों का एकदेश आचार्यपरम्परा से आकर धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ। वे उन अंग-पूर्वो के एकदेशभूत महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के ज्ञाता थे ।'
उन्होंने उस समस्त महाकर्मप्रकृतिप्राभृत को भूतबलि और पुष्पदन्त के लिए समर्पित कर दिया । तब भूतबलि भट्टारक ने श्रुत के व्युच्छेद के भय से उस महाकर्मप्रकृति का उपसंहार कर छह खण्ड किये।
वह महाकर्मप्रकृतिप्राभृत दूसरे अग्रायणी पूर्व के अन्तर्गत चौदह वस्तु नामक अधिकारों में चयनलब्धि नामक पाँचवें अधिकार के बीस प्राभतों में चौथा है।
यही स्थिति कषायप्राभूत की भी है । पूर्वोक्त क्रम से उत्तरोत्तरश्रुत के क्षीण होने पर शेष रहे सब अंग-पूवों के एकदेशभूत प्रेयोद्वेषप्राभूत के धारक गुणधर भट्टारक हुए। प्रेयोद्वेषप्राभूत यह कषायप्राभृत का दूसरा नाम है। प्रेयस् नाम राग का है, ये राग और द्वेष कषायस्वरूप १. 'तदो सव्वेसिमंग-पुव्वाणमेगदेसो आइरियपरंपराए आगच्छमाणो धरसेणाइरियं संपत्तो।
धवला पु० १, पृ० ६५-६७; लोहाइरिये सग्गलोगं गदे आयार-दिवायरो अथमिओ। एवं बारससु दिणयरेसु भरहखेत्तम्मि अत्थमिएसु सेसाइरिया सव्वेसिमंग-पुव्वाणमेगदेसभूद
पेज्जदोस-महाकम्मपयडिपाहुडादीणं धारया जादा।-धवला, पु० ६, पृ० १३३ २. धवला पु० ६, पृ० १३३ ३. पुव्वम्मि पंचमम्मि दु दसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिए।
पेज्जं ति पाहुडम्मि दु हवदि कसायाण पाहुडं णाम ।।-क० प्रा० १ तस्स पाहुडस्स दुवे णामधेज्जाणि । तं जहा-पेज्ज-दोसपाहुडे त्ति वि कसायपाहुडे त्ति वि। क० प्रा० चूर्णि २१ (क० पा० सुत्त, पृ० १६)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org