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उपसंहार
fron यह है कि प्रस्तुत षट्खण्डागम के पूर्व कुछ खण्डों में- जैसे ( १ ) क्षुद्रकबन्ध (२), बन्धस्वामित्वविचय (३) वेदना, (४) खण्ड के अन्तर्गत क्षेत्र, काल व भाव आदि अवान्तर अनुयोगद्वारों में तथा वर्गणा (५) खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' व 'बन्धन' (बन्धनीय) अनुयोगद्वारों में प्रकृति-स्थिति आदि बन्धभेदों व उनकी विविध अवस्थाओं की प्ररूपणा प्रकीर्णक रूप में जहाँ तहाँ प्रसंगवश संक्षेप में की गई है। प्रकृति-स्थिति आदि रूप उसी चार प्रकार के बन्ध की अतिशय व्यवस्थित प्रक्रियाबद्ध प्ररूपणा प्रस्तुत षट्खण्डागम के इस छठे खण्ड में अनेक अनुयोगद्वारों और उनके अन्तर्गत अनेक प्रवान्तर अनुयोगद्वारों में बहुत विस्तार से की गई है। इसी से यह छठा खण्ड पूर्व पाँच खण्डों से छह गुणा ( ६००० × ५ = ३०००० विस्तृत है ।
१४२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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