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________________ वर्गणा - प्ररूपणा, स्पर्धक प्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । इन योगस्थानों की प्ररूपणा इसके पूर्व वेदनाद्रव्य विधान की चूलिका में उन्हीं दस अनुयोगद्वारों के आश्रय से पूर्व में भी की जा चुकी है ।" इसी प्रसंग में महाबन्ध में चौदह जीवसमासों के आश्रय से जघन्य व उत्कृष्ट योग विषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । इस अरुपबहुत्व की प्ररूपणा भी उपर्युक्त वेदनाद्रव्य विधान की चूलिका में उसी प्रकार से की गई है ।" प्रदेशबन्धस्थान --- जितने योगस्थान होते हैं, उतने ही प्रदेशबन्धस्थान होते हैं । विशेष रूप में इन प्रदेशबन्धस्थानों को प्रकृतिविशेष की अपेक्षा उन योगस्थानों से विशेष अधिक कहा गया है । उदाहरणस्वरूप जो जीव जघन्य योग से आठ कर्मों को बाँधता है उससे ज्ञानावरण का एक प्रदेशबन्ध स्थान होता है । तत्पश्चात् प्रक्षेप अधिक दूसरे योगस्थान से आठ कर्मों के बाँधने वाले के दूसरा प्रदेशबन्धस्थान होता है । इसी क्रम से उत्कृष्ट योगस्थान तक जानना चाहिए। इस प्रकार से योगस्थान प्रमाण ही ज्ञानावरण के प्रदेशबन्धस्थान होते हैं । यही नियम आयुकर्म को छोड़कर अन्य सब कर्मों के विषय में है । आयु के प्रदेशबन्धस्थान परिणामयोगस्थान प्रमाण ही होते हैं, क्योंकि उसका बन्ध उपपाद और एकान्तानुवृद्धि योगस्थानों के समय में नहीं होता । यही अभिप्राय इसके पूर्व उस वेदनाद्रव्य विधान की चूलिका में भी प्रकट किया गया है। वहाँ भी यही कहा गया है " जाणि चेव जोगट्ठाणाणि ताणि चेव पदेसबन्धद्वाणाणि । णवरि पदेसबंधद्वाणाणि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि । " सूत्र ४, २, ४, २१३ यहाँ जो प्रदेशबन्ध स्थानों को प्रकृतिविशेष से विशेष अधिक कहा गया है उसका स्पष्टीकरण धवलाकार ने विस्तार से किया है । आगे इसी प्रकार सर्व नोसर्वबन्ध आदि अन्य अनुयोगद्वारों के आश्रय से इस प्रदेशबन्ध की प्ररूपणा उनके नामानुसार वहाँ विस्तार से की गई है । यहाँ महाबन्ध के विषय का दिग्दर्शन मात्र कराया गया है । विशेष परिचय ग्रन्थ के परिशीलन से ही प्राप्त हो सकता है । यह महाबन्ध पृथग्रूप में हिन्दी अनुवाद के साथ भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा ७ जिल्दों में प्रकाशित किया गया है जो मूल मात्र है । प्रस्तुत षट्खण्डागम के पूर्व पाँच खण्डों पर जिस प्रकार आचार्य वीरसेन द्वारा संस्कृत- प्राकृतमय धवला टीका लिखी गई है, उस प्रकार किसी आचार्य के द्वारा इस छठे खण्ड पर कोई टीका नहीं लिखी गई । मूल रूप में ही वह तीस हजार श्लोक प्रमाण है, यह पूर्व में कहा ही जा चुका है । १. ष० ख० पु० १०, पृ० ४३२- ५०५, सूत्र १७५-२१३ २. ष० ख०, पु० १०, पृ० ३६५-४०३, सूत्र १४४-७३ ३. धवला, पु० १०, पृ० ५०५-१२ Jain Education International मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / १४१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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