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________________ इनमें से अविभागप्रतिच्छेद प्ररूपणा के प्रसंग में धवलाकार ने सूत्र १६६ की व्याख्या में अविभागप्रतिच्छेद, वर्ग, वर्गणा और स्पर्धक इनके स्वरूप आदि का स्पष्टीकरण संदृष्टि के साथ विस्तारपूर्वक किया है।' इस प्रकार अनुभाग के प्रसंग में उन दो अनुयोगद्वारों के आश्रय से निषेकों और स्पर्धकों की प्ररूपणा करके आगे महाबन्ध में उन्हीं २४ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है, जिनका उल्लेख इसके पूर्व प्रकृति और स्थितिबन्ध में किया जा चुका है। विशेषता इतनी है कि प्रथम अनुयोगद्वार का उल्लेख जहाँ प्रकृतिबन्ध के प्रसंग में 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' और स्थितिबन्ध के प्रसंग में 'अद्धाच्छेद' के नाम से किया गया है वहाँ अनुभाग के प्रसंग में उसका उल्लेख 'संज्ञा' के नाम से किया गया है । शेष २३ अनुयोगद्वार नाम से वे ही हैं। संज्ञा अनुयोगद्वार-घाति संज्ञा और स्थान संज्ञा के भेद से संज्ञा दो प्रकार की है। जो जीव के ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और वीर्य गुणों का विघात किया करते हैं उन ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मों की 'घाति' संज्ञा है। शेष वेदनीय आदि चार कर्म अधाति हैं, क्योंकि वे जीवगुणों का घात नहीं करते। इन घाति-अघाति कर्मों के अनुभाग की तर-तमता जिनसे प्रकट होती है उनका नाम स्थान है। घाति कर्मों के अनुभागविषय व स्थान चार हैं--एकस्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय । इनमें लता के समान अनुभाग एकस्थानीय, उससे कुछ कठोर दारु (लकड़ी) के समान अनुभाग द्विस्थानीय, दारु से भी कुछ कठोर हड्डी के समान अनुभाग त्रिस्थानीय और उससे भी अधिक कठोर पत्थर के समान अनुभाग चतुःस्थानीय कहलाता है। अघातिकर्म प्रशस्त व अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार के हैं। इनमें प्रशस्त घाति कर्मों का अनुभाग तर-तमता से गुड़, खाँड, शक्कर और अमृत के समान तथा अप्रशस्त धाति कर्मों का अनुभाग नीम, कांजीर, विष और हालाहल के समान होता है। __ इस प्रकार कर्मों के अनुभाग की प्ररूपणा इस संज्ञा अनयोगद्वार में विस्तारपूर्वक की __ आगे सर्व-नोसर्वबन्ध आदि अन्य अनुयोगद्वारों के आश्रय से अपने-अपने नाम के अनुसार प्रकृत अनुभाग विषयक प्ररूपणा की गई है। ४. प्रदेशबन्ध योग के निमित्त से कार्मण वर्गणाओं के परमाण कर्म रूप परिणत होकर जो जीवप्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह रूप में अवस्थित होते हैं, इसका नाम प्रदेशबन्ध हैं । इस प्रदेशबन्ध की प्ररूपणा में वे ही २४ अनुयोगद्वार हैं। उनमें प्रथम अनुयोगद्वार का नाम स्थान-प्ररूपणा है, शेष २३ अनुयोगद्वार नाम से पूर्व के समान वे ही हैं । स्थानप्ररूपणा में दो अनुयोगद्वार हैं---योगस्थानप्ररूपणा और प्रदेशबन्धप्ररूपणा । मन, वचन व काय के निमित्त से जो आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन होता है उसका नाम योग है। एक काल में होनेवाले इस प्रदेश परिस्पन्दनरूप योग को योगस्थान कहते हैं। इन योगस्थानों की प्ररूपणा यहाँ इन दस अनुयोगद्वारों के द्वारा की गई है-अविभाग-प्रतिच्छेदप्ररूपणा, १. ष० ख०, पु० १२, पृ० ६१-१११ १४० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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