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२५. बन्ध २६. पुद्गल
इस प्रकार षट्खण्डागम के अन्तर्गत उन १४ मार्गणाओं की अपेक्षा ये १२ द्वार प्रज्ञापना में अधिक हैं - दिशा ( १ ), उपयोग (१३), भाषक (१५), परीत (१६), पर्याप्त (१७), सूक्ष्म (१८), अस्तिकाय (२१), चरम (२२), जीव (२३), क्षेत्र (२४), बन्ध (२५) और पुद्गल (२६) ।
२०. भव (भवसिद्धियअभवसिद्धिय) (११) २१. अस्तिकाय
२२. चरम
२३. जीव
२४. क्षेत्र
इस प्रकार प्रज्ञापना में जो इन द्वारों के आश्रय से जीवों, अजीवों और जीव-अजीवों में अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है उसमें षड् खण्डागम की अपेक्षा अधिक विकास हुआ है ।
आगे प्रज्ञापना में १८वें 'कायस्थिति' पद के प्रारम्भ में जिन २२ द्वारों का निर्देश किया गया है उनमें भी षट्खण्डागम में निर्दिष्ट उन गति- इन्द्रियादि १४ मार्गणओं के नाम उपलब्ध होते हैं । ये २२ द्वार प्रज्ञापना के पूर्वोक्त 'बहुवक्तव्य' पद के २६ द्वारों में भी गर्भित हैं । यहाँ उन २६ द्वारों में से दिशा ( १ ), क्षेत्र (२४), बन्ध (२५) और पुद्गल (२६) ये चार द्वार नहीं हैं । उन २२ द्वारों का नाम निर्देश करते हुए वहाँ कहा गया है कि इन पदों की कार्यस्थिति ज्ञातव्य है । (प्रज्ञापनासूत्र १२५६, गाथा २११-१२)
२. षट्खण्डागम में चौदह जीवसमासों की प्ररूपणा में प्रयोजनीभूत सत्प्ररूपणा आदि आठ अनुयोगद्वारों का उल्लेख करते हुए ( १, १, ७) आगे यथाक्रम से उनकी प्ररूपणा है ।
प्रज्ञापना में जैसाकि ऊपर ग्रन्थपरिचय में कहा जा चुका है, षट्खण्डागम के समान आगे जिन ३६ पदों के आश्रय से जीव अजीवों की प्ररूपणा की जानेवाली है उनका निर्देश प्रारम्भ में कर दिया गया है । ( गाथा ४-७ )
इस प्रसंग में इन दोनों ग्रन्थों में विशेषता यह रही है कि षट्खण्डागम में जहाँ उन सत्प्ररूपणा आदि अधिकारों का उल्लेख 'अनुयोगद्वार' के नाम से करते हुए उनकी 'आठ' संख्या का भी निर्देश कर दिया गया है ( ११, ५ - ७) वहाँ प्रज्ञापना में उन द्वारों का उल्लेख न तो 'पद' इस नाम से किया गया है और न उनकी उस 'छत्तीस' संख्या का भी निर्देश किया गया है (४-७) ।
३. षट्खण्डागम में आगे कृत प्रतिज्ञा के अनुसार यथाक्रम से गति- इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में वर्तमान जीवविशेषों के सत्व को दिखाकर उनमें गुणस्थानों का मार्गण किया गया है । (सूत्र १,१,२४-१७७, पु० १)
प्रज्ञापना में जो प्रथम 'प्रज्ञापना' पद है उसके अन्तर्गत जीवप्रज्ञापना और अजीवप्रज्ञापना में से जीवप्रज्ञापना की प्ररूपणा करते हुए उसके ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं—संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना और असंसारसमापन्नजीव प्रज्ञापना । उनमें संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना के प्रसंग में संसारी जीवों के एकेन्द्रियादि भेद-प्रभेदों को प्रकट किया गया है। (सूत्र १८ - १४७ )
षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २३१
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