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________________ प्रश्नोत्तर की पद्धति नहीं उपलब्ध होती है । वहाँ प्रायः गौतम और भगवान् महावीर के उल्लेख के बिना सामान्य से ही प्रश्न व उसका उत्तर देखा जाता है । यथा - " से कि तं पण्णवणा ? पण्णवणा दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - जीवपण्णवणा य ? अजीवपण्णवणा य" । " यही पद्धति इस पद में सर्वत्र अपनाई गई है । आगे 'स्थान' आदि पदों में गौतम द्वारा प्रश्न और भगवान् के द्वारा किये गये उसके समाधान के रूप में वह पद्धति देखी जाती है । इस प्रकार संक्षेप में प्रज्ञापनासूत्र का परिचय कराकर अब आगे उसकी षट्खण्डागम के साथ कहाँ कितनी समानता है और कितनी विशेषता है, इसका विचार किया जाता है १. षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड 'जीवस्थान' में विभिन्न जीवों में चौदह मार्गणात्रों के आश्रय से चौदह जीवसमासों ( गुणस्थानों) का अन्वेषण करना अभीष्ट रहा है । इसके लिए वहाँ प्रारम्भ में गति इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं के नामों का निर्देश ज्ञातव्य के रूप में किया गया है (सूत्र १,१, २-४)। प्रज्ञापना में 'बहुवक्तव्य' नाम का तीसरा पद है । उसमें दिशा व गति आदि छब्बीस द्वारों के आश्रय से जीव अजीवों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है । उन द्वारों के नामों में प्रस्तुत षट्खण्डागम में निर्दिष्ट १४ मार्गणाओं के नाम गर्भित हैं। यथा घटखण्डागम सूत्र १,१,४ १. गति २. इन्द्रिय ३. काय ४. योग ५. वेद ६. कषाय ७. ज्ञान ८. संयम ६. दर्शन १०. लेश्या ११. भव्यत्व १२. सम्यक्त्व १३. संज्ञी १४. आहार १. सूत्र ८२ व ८३ इसके अपवाद हैं । २३० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International प्रज्ञापना सूत्र २१२ ( गाथा १८०-८१ ) १. दिशा २. गति ( १ ) ३. इन्द्रिय ( २ ) ४. काय ( ३ ) ५. योग ( ४ ) ६. वेद (५) For Private & Personal Use Only ७. कषाय ( ६ ) 5. ६. सम्यक्त्व (१२) १०. ज्ञान ( ७ ) ११. दर्शन ( C ) लेश्या (१०) १२. संयत ( ८ ) १३. उपयोग १४. आहार (१४) १५. भाषक १६. परीत १७. पर्याप्त १८. सूक्ष्म १६. संज्ञी (१३) www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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