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________________ है। आगे वहाँ 'अत्र श्लोकः' ऐसा निर्देश करते हुए इस श्लोक को उद्धृत किया गया है अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥' इसी प्रसंगमें आगे धवला में तादात्म्य और तदुत्पत्ति में से किसी एक के नियम को भी सदोष बतलाते हुए यह कह दिया गया है कि 'वह सुगम है', इसलिए उसका यहाँ विस्तार नहीं करते हैं। शेष को हेतुवादों हेतु के प्ररूपक न्यायग्रन्थों में देखना चाहिए।' (५) इसी 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में आगे गोत्रकर्म के प्रसंग में शंकाकार द्वारा दार्शनिक दृष्टि से गोत्र के अभाव को प्रकट करने पर धवलाकार ने आगमिक दृष्टि से उसका सद्भाव सिद्ध किया है । (६) धवलाकार का द्वारा प्ररूपित 'प्रक्रम' अनुयोगद्वार में कर्मप्रक्रम के प्रसंग में वादी के द्वारा अकर्म से कर्म की उत्पत्ति को असम्भव बतलाया गया है। उस प्रसंग में आचार्य वीरसेन ने कार्य की सर्वथा कारणानुसारिता का निराकरण कर सत्-असत्कार्यवाद विषयक एकान्तता के विषय में दार्शनिक दृष्टि से विस्तारपूर्वक विचार किया है। वहाँ उन्होंने कार्य कथंचित् सत् उत्पन्न होता है, कथंचित् वह असत् उत्पन्न होता है, इत्यादि रूप से सात भंगों की भी योजना की है तथा प्रसंग के अनुरूप सांख्यकारिका (8) और आप्तमीमांसा की ३७, ३६-४०, ४१,४२, ५७,५९-६०, और ६-१४ इन कारिकाओं को भी उद्धत किया है। ऊपर जो दार्शनिक प्रसंग से सम्बद्ध ये कुछ उदाहरण दिये गये हैं उन्हें देखते हुए आ० वीरसेन की न्यायनिपुणता में सन्देह नहीं रहता। काव्यप्रतिभा-आ० वीरसेन की काव्यविषयक प्रतिभा भी स्तुत्य रही है। प्रस्तुत षटखण्डागम के सिद्धान्तग्रन्थ होने से उसकी व्याख्या में काव्यविषयक कुशलता के प्रकट करनेवाले प्रसंग प्रायः नहीं रहे हैं, फिर भी जो कहीं पर इस प्रकार का कुछ प्रसंग प्राप्त हुआ है वहाँ धवलाकार ने जिस लम्बे समासोंवाली सुललित संस्कृत व प्राकृत भाषा में विवक्षित विषय का वर्णन किया है उसके देखने से उनकी कार्यकुशलता भी परिलक्षित होती है। इसके अतिरिक्त, उनकी काव्यपटुता का दर्शन उनके द्वारा धवला क प्रारम्भ में छह गाथाओं द्वारा किये गये मंगल-विधान में भी होता है। वहाँ उपमा, रूपक और अनुप्रास १. इस श्लोक को अनेक न्यायग्रन्थों में उद्धृत किया गया है (देखिए, न्यायदीपिका पृ० ८४-८५ का टिप्पण ६) । इस विषय में विशेष जानकारी 'न्यायकुमुदचन्द्र' की प्रस्तावना में 'पात्र केसरी और अकलंक' शीर्षक से प्राप्त होती है। भा० १, पृ० ७३-७६ । २. 'तादात्म्य' और 'तदुत्पत्ति' के विषय में प्र०क०मा० पृ० ११०, २ और न्या०कु०च०२, पृ० ४४४-४५ द्रष्टव्य हैं । ३. धवला पु० १३, पृ० २४५-४६ ४. वही, पृ० ३८८-८९ ५. धवला पु० १५, पृ० १६-३५ . ६. उदाहरण के रूपमें देखिए पु० १, पृ० ६०-६१ में भगवान महावीर का वर्णन तथा पु०६; पृ० १०६-१३ में समवसरण का वर्णन । षद्खण्डागम पर टीकाएँ / ३६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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