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________________ ख्यानावरण क्रोधादिरूप आठ कषायों का एक साथ क्षय करता है । इस प्रसंग में यहाँ धवलाकार ने सत्कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत के अनुसार दो भिन्न मतों का उल्लेख किया है और अनेक शंका समाधानपूर्वक उनके विषय में विचार करते हुए उन दोनों को ही संग्राह्य कहा है । उस सबकी चर्चा आगे 'मतभेद' के प्रसंग में हम करेंगे । उक्त दोनों उपदेशों के अनुसार आगे-पीछे उन सोलह प्रकृतियों और आठ कषायों के क्षय को प्राप्त हो जाने पर अन्तर्मुहूर्त जाकर वह चार संज्वलन और नौ नोकषायों के अन्तरकरण को करता है । उन चार संज्वलन कषायों में जो भी एक उदय को प्राप्त हो उसकी तथा नौ नोकषायों के अन्तर्गत तीन वेदों में भी जो एक उदय को प्राप्त हो उसकी प्रथम स्थिति को अन्तर्मुहूर्तं मात्र तथा शेष ग्यारह प्रकृतियों की प्रथम स्थिति को एक आवली मात्र करता है । अन्तरकरण करने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर यह नपुंसकवेद का क्षय करता है । पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर स्त्रीवेद का क्षय करता है । फिर अन्तर्मुहूर्त जाकर सवेद रहने के द्विचरम समय में पुरुषवेद के चिरसंचित सत्त्व के साथ छह नोकषायों का एक साथ क्षय करता है । तत्पश्चात् दो आवली मात्र काल जाकर पुरुषवेद का क्षय करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त - अन्तर्मुहूर्त जाकर वह क्रम से संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान और संज्वलन माया का क्षय करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में वह सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान को प्राप्त होता है । वह सूक्ष्मसाम्परायिक संयत भी अपने अन्तिम समय में संज्वलन लोभ का क्षय करता है । अनन्तर समय में वह क्षीणकषाय होकर अन्तर्मुहूर्त काल के बीतने पर अपने क्षीणकषाय काल के द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला इन दोनों ही प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है । इसके बाद के समय में वह पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पाँच अन्तराय इन चौदह प्रकृतियों का क्षय अपने क्षीणकषाय काल के अन्तिम समय में करता है । इन साठ कर्मों के क्षीण हो जाने पर वह सयोगी जिन हो जाता है । वह सयोगकेवली किसी कर्म का क्षय नहीं करता है, वह क्रम से विहार करके योगों का निरोध करता हुआ अयोगकेवली हो जाता है । वह भी अपने द्विचरम समय में अनुदय प्राप्त कोई एक वेदनीय और देवगति आदि बहत्तर प्रकृतियों का क्षय करता है । तत्पश्चात् अनन्तर समय में वह उदयप्राप्त वेदनीय और मनुष्यगति आदि तेरह प्रकृतियों का क्षय करता है । अथवा मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी के साथ वह अयोगकेवली द्विचरम समय में तिहत्तर और अन्तिम समय में बारह प्रकृतियों का क्षय करता है । मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी के क्षय के विषय में कुछ मतभेद रहा है । आचार्य 'पूज्यवाद आदि के मतानुसार अनुदय प्राप्त उस मनुष्यगत्यानुपूर्वी का क्षय अयोगकेवली के अन्तिम समय में होता है', किन्तु अन्य आचार्यों के मतानुसार उस का क्षय अयोगकेवली के द्विचरम समय में होता है।" उपर्युक्त विधि से समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर जीव नीरज होता हुआ सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार धवला में प्रसंग पाकर मोहनीय कर्म के क्षय की विधि का निरूपण किया गया है । १. स० स० १०-२ २. कर्मप्रकृति की उपा० यशोवि० टीका पृ० ६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३८३ www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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