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है। उपशम का अर्थ है कर्म का उदय, उदीरणा, अपकर्षण, उत्कर्षण, परप्रकृतिसंक्रमण, स्थितिकाण्डक घात और अनुभागकाण्डक घात के बिना सत्ता में स्थित रहना।
तत्पश्चात् वह अन्तर्मुहर्त जाकर नपुंसक वेद की उपशामन विधि के अनुसार स्त्रीवेद को उपशमाता है। तदनन्तर अन्तर्मुहुर्त जाकर उसी विधि से वह पुरुषवेद के चिरकालीन सत्त्व को
और हास्यादि छह नोकषायों को एक साथ उपशमाता है। आगे एक समय कम दो आवलियाँ जाकर वह पुरुषवेद के नवीन बन्ध को उपशमाता है। तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर प्रत्येक समय में असंख्यात गणित श्रेणि के क्रम से संज्वलन क्रोध के चिरसंचित सत्त्व के साथ अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण दोनों प्रकार के क्रोध को एक साथ उपशमाता है। तत्पश्चात् एक समय कम दो आवलियां जाकर संज्वलन-क्रोध के नवीन बन्ध को उपशमाता है। इसी पद्धति से वह आगे दो प्रकार के मान, माया आदि के साथ संज्वलनमान व माया आदि के चिरकालीन सत्त्व को एक साथ व एक समय कम दो आवलियां जाकर संज्वलन मान आदि के नवीन बन्ध को उपशमाता है। इस प्रकार यह प्रक्रिया बादर-संज्वलन-लोभ तक चलती है। अनन्तर समय में वह सूक्ष्म कृष्टिरूप संज्वलन लोभ का वेदन करता हुआ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान को छोड़ सूक्ष्मसाम्परायिक संयत हो जाता है। तत्पश्चात् वह अपने अन्तिम समय में उस सूक्ष्म कृष्टिरूप संज्वलन लोभ को पूर्ण रूप में उपशमा कर उपशान्तकषाय-वीतरागछद्मस्थ हो जाता है । इस प्रकार से यहाँ धवला में मोहनीय के उपशमाने की विधि की प्ररूपणा की गई है। ____ आगे कृतप्रतिज्ञा के अनुसार मोह की क्षपणा के विधान की भी प्ररूपणा करते हुए सर्वप्रथम धवला कार द्वारा क्षपणा के स्वरूप में यह कहा गया है कि जीव से आठों कर्मों का सर्वथा विनष्ट या पृथक् हो जाने का नाम क्षपणा या क्षय है। ये आठों कर्म मूल व प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से अनेक प्रकार के हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत अथवा अप्रमत्तसंयत में से कोई भी तीनों करणों को करके अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में प्रथमतः अनन्तानुबन्धी क्रोधादि चार का एक साथ क्षय करता है। पश्चात् क्रम से पुनः उन तीन करणों को करके अनिवृत्तिकरण के संख्यात बहुभाग को बिताकर मिथ्यात्व का क्षय करता है। तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर सम्यग्मिथ्यात्व का और फिर अन्तर्मुहुर्त जाकर सम्यक्त्व का क्षय करता है। इस प्रकार क्षायिकसम्यग्दृष्टि होकर वह क्रम से अधःकरण को करके अन्तर्महर्त में अपूर्वकरण हो जाता है।
अपूर्वकरणसंयत होकर वह इस गुणस्थान में एक भी कर्म का क्षय नहीं करता है। पर प्रत्येक समय में वह असंख्यात गुणित श्रेणि से प्रदेशनिर्जरा को करता है। तत्पश्चात् पूर्वोक्त क्रम से इस गुणस्थान में स्थितिकाण्डक घात आदि को करता हुआ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रविष्ट होता है । इस अनिवृत्तिकरण के संख्यात बहुभाग को अपूर्वकरण में निर्दिष्ट प्रक्रिया के अनुसार बिताकर उसका संख्यातवाँ भाग शेष रह जाने पर वह निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगति, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जाति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों का क्षय करता है और तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्या
१. धवला पु० १, पृ० २१०-१४ ३८२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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