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________________ पूर्वक उन दोनों गाथाओं के यथार्थ अर्थ को प्रकट किया है जो ध्यान देने योग्य है। इस प्रकार धवलाकार ने अनेक प्रसंगों पर प्रकृत दर्शन उपयोग के विषय में ऊहापोहपूर्वक विशद विचार किया है और निष्कर्ष के रूप में सर्वत्र स्वरूप संवेदन को दर्शन सिद्ध किया है। उपशामन-विधि और क्षपण-विधि प्रकृत सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में मनुष्यगति के आश्रय से मनुष्यों में निर्दिष्ट चौदह गुणस्थानों के प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि इस सूत्र (१,१,२७) का अर्थ पूर्व में-ओघ के प्रसंग में कहा जा चुका है। पर पूर्व में कहीं उपशामन विधि और क्षपण-विधि का प्ररूपण नहीं हुआ है, इसलिए हम यहाँ उससे सम्बद्ध उपशामक और क्षपक के स्वरूप के ज्ञापनार्थ उसकी संक्षेप में प्ररूपणा करते हैं। ऐसी सूचना करते हुए उन्होंने प्रथमतः धवला में उपशामनविधि की प्ररूपणा इस प्रकार की है____ अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्व इन सात प्रकृतियों को असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्त संयत तक-इनमें से कोई भी उपशमा सकता है। अपने स्वरूप को छोड़कर अन्य प्रकृति के रूप में रहना, यह अनन्तानुबन्धियों का उपशम है। सम्यक्त्व आदि तीन दर्शनमोह प्रकृतियों का उदय में नहीं रहना, यह उनका उपशम है। इसका कारण यह है कि उनके उपशान्त होने पर भी उनमें अपकर्षण, उत्कर्षण और प्रकृतिसंक्रमण सम्भव है। ___अपूर्वकरण में एक भी कर्म का उपशम नहीं होता। किन्तु अपूर्वकरणसंयत प्रत्येक समय में अनन्तगुणी विशुद्धि से वृद्धि गत होता हुआ अन्तर्मुहूर्त-अन्तर्मुहूर्त के क्रम से एक-एक स्थितिकाण्डक का घात करता है। इस प्रकार से वह संख्यात हजार स्थितिखण्डों का घात करता है। वह उतने ही स्थितिबन्धापसरणों को भी करता है। एक-एक स्थिति काण्डक काल के भीतर वह संख्यात हजार अनुभागखण्डों का घात करता है। प्रत्येक समय में वह असंख्यातगुणित श्रेणि के क्रम से प्रदेश निर्जरा को करता है। वह जिन अप्रशस्त कर्मों को नहीं बाँधता है उनके प्रदेशपिण्ड को असंख्यात गुणित के क्रम से अन्य बँधनेवाली प्रकृतियों में संक्रान्त करता है। ___इस प्रकार वह अपूर्वकरणकाल को बिताकर अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट होता हुआ अन्तर्मुहूर्त तक उसी विधि के साथ स्थित रहता है । पश्चात् अन्तर्महर्त में वह अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि बारह कषायों और नौ नोकषायों के अन्तरकरण को करता है। अन्तरकरण के समाप्त होने पर वह प्रथम समय से लेकर आगे अन्तर्मुहूर्त जाकर नपुंसक वेद का उपशम करता १. धवला पु०७, पृ० ६६-१०२ २. जैसे-पु० १, १४५-४६ व आगे पृ० ३७६-८२; पु० ६, पृ० ३२-३४; पृ० ७, पृ०६६ १०२; और पु० १३, पृ० ३५४-५६ ३. अन्तर, विरह और शून्यता ये समानार्थक शब्द हैं; इस प्रकार के अन्तर को करना अन्तर करण कहलाता है । अभिप्राय यह है कि नीचे और ऊपर की कितनी ही स्थितियों को छोड़कर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बीच की स्थितियों को शून्य या उनका अभाव कर देना, अन्तरक रण कहा जाता है । -पु०१, पृ० २१२ का टिप्पण २ षटखण्डागम पर टीकाए । ३८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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