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रिक्त एक-दूसरे से सर्वथा निरपेक्ष रहनेवाले उन सामान्य और विशेष का अस्तित्व भी सम्भव नहीं है जिन्हें केवलदर्शन और केवलज्ञान विषय कर सकें। और जो असत् है वह प्रमाण का विषय नहीं हो सकता । इस परिस्थिति में प्रमेय के अभाव में उसको विषय करनेवाला प्रमाण भी सम्भव नहीं है। इससे उस दर्शन का अभाव ही सिद्ध होता है।
इस प्रकार वादी द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त अभिमत का निराकरण करते हुए धवला में कहा गया है कि दर्शन का अभाव नहीं हो सकता। कारण यह कि सूत्र में आठ कर्मों का निर्देश किया गया है । पर आवरणीय (दर्शन) के अभाव में आवरक (दर्शनावरणीय कर्म) का अस्तित्व सम्भव नहीं है। इससे उस दर्शन का अस्तित्व सिद्ध है। इस पर यदि यह कहा जाय कि आवरणीय भी न रहे, तो ऐसा कहना उचित न होगा, क्योंकि "चक्षुदशिनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी क्षयोपशमलब्धि से तथा केवलदर्शनी क्षायिकलब्धि से होते हैं" इस प्रकार उनके अस्तित्व का प्रतिपादक जिनवचन' देखा जाता है। आगे वहाँ जीव के लक्षणभूत ज्ञानदर्शन का निर्देश करनेवाली दो गाथाओं को उद्धृत करते हुए कहा है कि इत्यादि उपसंहार सूत्र भी देखा जाता है।
इस प्रकार धवलाकार द्वारा दर्शन के अभावविषयक उपर्युक्त अभिमत का निराकरण आगम के आधार पर किया गया है। इससे वहाँ यह शंका उठायी गयी है कि भले ही आगम प्रमाण से दर्शन का अस्तित्व सिद्ध होता हो, किन्तु उसका अस्तित्व युक्ति से तो सिद्ध नहीं होता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि जिस आगमवचन के आश्रय से उस दर्शन के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है वह युक्तियों से बाधित नहीं होता। इस पर शंकाकार ने भी कहा है कि यथार्थ युक्ति आगम से भी बाधित नहीं होना चाहिए। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह ठीक है, यथार्थ युक्ति आगम से बाधित नहीं होती। पर आपकी वह युक्ति यथार्थ नहीं है, इसलिए वह आगम से अवश्य बाधित है । इसे और स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि ज्ञान केवल विशेष को ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि द्रव्य के सामान्य-विशेषात्मक होने से वह जात्यन्तर रूपता को प्राप्त देखा जाता है। ज्ञान जब तक दोनों नयों के विषय को न ग्रहण करे तब तक वह साकार नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति के होते हुए दर्शन का अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि उसका व्यापार बाह्य पदार्थ को छोड़कर अन्तरंग अर्थ में है।
धवला में एक बार फिर से यहाँ केवल ज्ञान के द्वारा अन्तरंग और बहिरंग अर्थ के जानने का निषेध करते हए अन्तरंग उपयोगरूप दर्शनविषयक मान्यता का "जं सामण्णग्गहनं'' आदि सूत्र के साथ सम्भावित विरोध का परिहार भी कर दिया गया है।
इसी प्रसंग में आगे शंकाकार ने कहा है कि उक्त प्रकार से सामान्य दर्शन और केवल दर्शन के सिद्ध हो जाने पर भी शेष चक्षुदर्शन आदि का सद्भाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि वे बाह्य अर्थ को ही विषय करते हैं। इसकी पुष्टि शंकाकार ने "चक्खूण जं पयासदि" आदि दो गाथाओं द्वारा की है। ___ इस पर धवलाकार ने 'इन गाथाओं के परमार्थ को नहीं समझा है' ऐसा कहते हुए पदच्छेद
१. ष०ख० सूत्र २,१,५६-५६ (पु०७, पृ०६६-१०३) ३८० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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