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एकेन्द्रियादि जीवों की व्यवस्था ____ इसी सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में आगे इन्द्रियमार्गणा के प्रसंग में एकेन्द्रियादि जीवों के अस्तित्व के प्ररूपक सूत्र (१,१,३३) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने प्रथमतः ‘इन्द्रनात् इन्द्रः आत्मा, तस्य लिंगम् इन्द्रियम् । इन्द्रेण सृष्टमिति वा इन्द्रियम्' इस निरुक्ति के अनुसार इन्द्र का अर्थ आत्मा करके उसके अर्थज्ञान में कारणभूत लिंग को अथवा उसके अस्तित्व के साधक लिंग को इन्द्रिय कहा है। प्रकारान्तर से इन्द्र का अर्थ नामकर्म करके उसके द्वारा जो रची गयी है उसे इन्द्रिय कहा गया है। इसका आधार सम्भवतः सर्वार्थसिद्धि (१-१४) रही है।
तत्पश्चात मल में उसके द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनके भेद-प्रभेदों को भी धवला में स्पष्ट किया गया है।
इस प्रसंग में यहाँ यह शंका की गयी है कि चक्षु आदि इन्द्रियों का क्षयोपशम स्पर्शन इन्द्रिय के समान समस्त आत्मप्रदेशों में उत्पन्न होता है अथवा प्रतिनियत आत्मप्रदेशों में। इन दोनों विकल्पों में उस क्षयोपशम की असम्भावना को व्यक्त करते हुए आगे शंकाकार कहता है कि समस्त आत्मप्रदेशों में उनका क्षयोपशम होना सम्भव नहीं है, क्योंकि वैसा होने पर समस्त अवयवों के द्वारा रूप-रसादि की उपलब्धि होना चाहिए, पर वैसा देखा नहीं जाता है। प्रतिनियत आत्मप्रदेशों में भी उनका क्षयोपशम नहीं हो सकता है। इसका कारण यह है कि आगे वेदनासूत्रों में जो कर्मवेदनाओं को. यथासम्भव स्थित, अस्थित और स्थित-अस्थित कहा गया हैं' उससे जीवप्रदेशों की परिभ्रमणशीलता निश्चित है। तदनुसार जीवप्रदेशों के संचरमाण हीने पर सब जीवों के अन्धता का प्रसंग प्राप्त होता है ।
__इस शंका के समाधान में धवला में कहा गया है कि उपर्युक्त दोष की सम्भावना नहीं है । कारण यह है कि चक्षुरादि इन्द्रियों का क्षयोपशम तो समस्त जीवप्रदेशों में उत्पन्न होता है. किन्तु उन सब जीवप्रदेशों के द्वारा जो रूपादि की उपलब्धि नहीं होती है उसका कारण उस रूपादि की उपलब्धि में सहायक जो बाह्य निर्व त्ति है वह समस्त जीवप्रदेशों में व्याप्त नहीं है। इस प्रकार धवलाकार ने अन्य शंका-समाधानपूर्वक इस विषय में पर्याप्त ऊहापोह किया है।
आगे स्वरूप निर्देशपूर्वक धवला में चक्षुरादि बाह्य निर्व त्ति, इन्द्रियों के आकार और उनके प्रदेश प्रमाण को प्रकट करते हुए उपकरणेन्द्रिय के बाह्य व अभ्यन्तर भेदों के साथ भावेन्द्रिय के लब्धि और उपयोग भेदों को भी स्पष्ट किया गया है। अन्त में एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जीवों के स्वरूप को दिखलाते हुए उसी सिलसिले में स्पर्शनादि इन्द्रियों के स्वरूप को भी स्पष्ट कर दिया गया है।
इसी प्रकार आगे भी इस सत्प्ररूपणा में कायादि अन्य मार्गणाओं के प्रसंग में भी विवक्षित विषय का आवश्यकतानुसार धवला में विवेचन किया गया है । जैसे-योगमार्गणा के प्रसंग में केवलिसमुद्घात का तथा ज्ञानमार्गणा के प्रसंग में मतिज्ञानादि ज्ञानभेदों का।'
१. सूत्र ४,२,११,१-१२, पृ० ३६४-६६ २. धवला पु० १, पृ० २३१-४६ ३. वही, १,३००-४
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३८४/ षट्खण्डागम-परिशीलन
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