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________________ आलाप प्रकृत सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के अन्तर्गत समस्त (१७७) सूत्रों की व्याख्या कर चुकने पर आगे धवलाकार ने उनकी प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा की है।' यहाँ 'प्ररूपणा' से उनका क्या अभिप्राय रहा है, इसे स्पष्ट करते हुए आगे उन्होंने कहा है कि ओघ और आदेश की अपेक्षा गुणस्थानों, जीवसमासों, पर्याप्तियों, प्राणों, संज्ञाओं, गत्यादि चौदह मार्गणाओं और उपगोगों के विषय में पर्याप्त-अपर्याप्त विशेषणों से विशेषित करके जो जीवों की परीक्षा की जाती है उसका नाम प्ररूपणा है । यह कहते हुए उन्होंने आगे 'उक्तं च' निर्देश के साथ इस गाथा को उद्धृत किया है गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य । उवजोगो वि य कमसो बीसं तु परूवणा भणिया ।। इसके आश्रय से प्ररूपणा के इन बीस भेदों का निर्देश किया है.---- १. गणस्थान, २. जीवसमास, ३. पर्याप्ति, ४. प्राण, ५. संज्ञा, ६-१८. चौदह मार्गणायें और २०. उपयोग। ___आगे धवला में यह सूचना की गई है कि शेष प्ररूपणाओं का अर्थ कहा जा चुका है, इससे उनकी पुनः प्ररूपणा न करके यहाँ प्राण, संज्ञा और उपयोग इन प्ररूपणाओं का अर्थ कहा जाता है। तदनुसार आगे धवला में प्राण, संज्ञा और उपयोग इनका स्वरूप स्पष्ट करते हए उनमें प्राण और संज्ञा के भेदों का भी निर्देश कर दिया गया है।' यहाँ इस प्रसंग में यह शंका की गई है कि गाथा में निर्दिष्ट यह बीस प्रकार की प्ररूपणा सूत्र के द्वारा कही गई है या नहीं। यदि सूत्र द्वारा वह नहीं कही गई है तो यह प्ररूपणा नहीं हो सकती, क्योंकि वह सूत्र में अनुक्त अर्थ का प्रतिपादन करती है । और यदि वह सूत्र में कही गई है तो जीवसमास, प्राण, पर्याप्ति, उपयोग और संज्ञा इनका मार्गणाओं में जैसे अन्तर्भाव होता है वैसा कहना चाहिए। __ इस शंका के समाधान में धवलाकार ने 'सूत्र में अनुक्त' रूप दूसरे पक्ष का निषेध करते हए जीवसमास आदि का मार्गणाओं में जहाँ अन्तर्भाव सम्भव है वहाँ उसे दिखला दिया है। ____ आगे 'प्ररूपणा से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है' यह पूछने पर उसके उत्तर में कहा गया है कि सूत्र के द्वारा जिन अर्थों की सूचना की गई है उनके स्पष्टीकरण के लिए इस प्रकरण के द्वारा वह वीस प्रकार की प्ररूपणा कही जा रही है।' इम प्रकार सूत्र से सूचित होने के कारण धवलाकार ने उन बीस प्रर.पणाओं को वर्णनीय १. संपहि संतसुतविवरणसमत्ताणंतर तेसि परूवणं भणिस्सामो ।--धवला १० २, पृ० ४११ २. परूवणा णाम कि उत्तं होदि ? ओघादेसेहि गुणेसु जीवसभागेनु पज्जत्तीसु पाणेसु सणासु गदीसु इंदिएमु काएसु जोगेस वेदेसु कसाएसु णाणेसु संजमेम् दमणेस लेस्सासु भविएसु अभविएसु सम्मत्तेसु सण्णि-असण्णीसु आहारि अणाहारीमु उवजोगेम च पज्जतापज्जत्तविसेसणेहि विसेसिऊण जा जीवपरिक्खा सा प्ररूवणा णाम । --- धवला पृ० २, पृ० ४११ ३. धवला पु०२, पृ०४१२-१३ ४. धवला पु० २, पृ० ४१३-१५ षटखण्डागम पर टीकाएँ / ३८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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