SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 544
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संख्यात वर्ष की आयुवाले ही हैं, पर यहाँ एक समय अधिक पूर्वकोटि आदि आगे की आयु के विकल्पों को असंख्यात वर्षायु माना गया है। आगे उदाहरण देते हुए बतलाया है कि 'असंख्यात वर्ष' शब्द को 'राजवृक्ष' के समान अपने अर्थ को छोड़कर रूढ़ि के बल से आयु विशेष में वर्तमान ग्रहण किया गया है. (पु० ११, पृ० ८५-६१ ) । ज्ञानावरण की अनुत्कृष्ट कालवेदना काल की अपेक्षा ज्ञानवरण की अनुत्कृष्ट वेदना उसकी पूर्वोक्त उत्कृष्ट वेदना से भिन्न है, ऐसा सूत्र में निर्देश है ( सूत्र ४, २, ६, ९) । इसकी व्याख्या में धबलाकार ने कहा है कि वह अनुत्कृष्ट वेदना अनेक प्रकार की है तथा स्वामी भी उसके अनेक प्रकार के हैं इसलिए हम उनकी प्ररूपणा करेंगे, यह कहते हुए उन्होंने धवला में उनकी प्ररूपणा की है। जैसे तीन हजार वर्ष आबाधा करके तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण उसकी स्थिति के बंधने पर उत्कृष्ट स्थिति होती है। संदृष्टि में यहाँ उसका प्रमाण दो सौ चालीस (२४०) है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट रूप में दो सौ उनतालीस (२३९) होगी । उसकी अपेक्षा अन्य जीव के दो समय कम उत्कृष्ट स्थिति के बाँधने पर अनुत्कृष्ट स्थिति का दूसरा स्थान २३८ होता है । इस क्रम से आबाधाकाण्डक से हीन उत्कृष्ट स्थिति के बाँधे जाने पर उसका अन्य अनुत्कृष्ट स्थान होता है । यहाँ संदृष्टि में आबाधाकाण्डक का प्रमाण ३० अंक माना गया है। इसे उत्कृष्ट स्थिति में से घटा देने पर २१० (२४०-३०) शेष रहते हैं । वहाँ का स्थान इतना मात्र होता है । इसी प्रकार से आगे संदृष्टि में ८ को आबाधा का प्रमाण मानकर एक समय अधिक आबाधाकाण्डक (१+३०) से हीन उत्कृष्ट बँधने पर अनुत्कृष्ट स्थिति का अन्य स्थान (२४०२३१ = २०६ ) होता है । इसी क्रम से दो आदि आबाधाकाण्डकों से होन उत्कृष्ट स्थिति के बाँधे जाने पर अनुत्कृष्ट स्थिति के अन्य विकल्पों का धवला में आगे विचार किया गया है । आगे सूत्रकार द्वारा शेष सात कर्मों की उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट व जघन्य - अजघन्य कालवेदना की जो प्ररूपणा की गयी है उसकी व्याख्या पूर्व पद्धति के अनुसार धवला में यथा प्रसंग की गयी है । तीसरे अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में सूत्रकार द्वारा कालवेदना सम्बन्धी अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है उसमें विशेष व्याख्येय विषय कुछ नहीं है । वेदनाकालविधान - चूलिका अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार की समाप्ति के बाद सूत्रकार ने कहा है कि मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध पूर्व में ज्ञातव्य । उसमें ये चार अनुयोगद्वार हैं-- स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आाबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व (सूत्र ४, २, ६,३६) । इसकी व्याख्या में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सूत्र में जिन पदमीमांसा आदि तीन अनुयोगद्वारों का निर्देश था उनके आश्रय से वेदनाकालविधान की प्ररूपणा की जा चुकी हैं। इस प्रकार वेदना कालविधान के समाप्त हो जाने पर अब आगे के सूत्र को प्रारम्भ करना ४१० / षट्लण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy