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________________ के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-प्रधानकाल और अप्रधानकाल । इनमें जो शेष पाँच द्रव्यों के परिणमन का हेतुभूत, रत्नराशि के समान प्रदेशचय से रहित, अमूर्त, अनादिनिधन व लोकाकाश के प्रदेशों का प्रमाण काल है उसे प्रधानकाल कहा गया है। अप्रधानकाल सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें डांस-मच्छर आदि के काल को सचित्त, धुलिकाल आदि को अचित्त और डांस सहित शीतकाल आदि को मिश्रकाल कहा गया है। सामाचारकाल लौकिक और लोकोत्तरीय के भेद से दो प्रकार का है। इनमें वन्दनाकाल, नियमकाल, स्वाध्यायकाल, ध्यानकाल आदि को लोकोत्तरीय तथा कर्षणकाल, लुननकाल, वपनकाल आदि को लौकिक काल कहा गया है । अद्धाकाल अतीत, अनागत और वर्तमान काल के भेद से तीन प्रकार का है। पल्योपम, सागरोपम आदि प्रमाणकाल के अन्तर्गत हैं। इन सब कालभेदों में यहां धवला में प्रमाणकाल प्रसंगप्राप्त है। पूर्वोक्त वेदनाद्रव्यविधान और वेदनाक्षेत्रविधान के समान यहाँ भी वे ही पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व नाम के तीन अनुयोगद्वार हैं। उसी पद्धति से यहां भी पदमीमांसा के प्रसंग में धवलाकार ने पृच्छासूत्र और उत्तरसूत्र इन दोनों को देशामर्शक कहकर उनसे सूचित अन्य नौ पृच्छाओं को उठाकर समस्त तेरह प्रकार की पृच्छाओं का समाधान किया है। पूर्व पद्धति के अनुसार यहाँ दोनों सूत्रों के अन्तर्गत अन्य तेरह सूत्रों का निर्देश करते हुए समस्त १६६ पृच्छाओं का उल्लेख किया गया है (पु० ११, पृ० ७८-८४)। स्वामित्व के प्रसंग में सूत्रकार ने उसे जघन्यपदविषयक और उत्कृष्टपदविषयक के भेद से दो प्रकार का निर्दिष्ट किया है (सूत्र ४,२,६,६)। प्रसंग पाकर यहां धवला में नाम-स्थापनादि के भेद से जघन्य और उत्कृष्ट के अनेक भेदप्रभेदों का निर्देश करते हुए पृथक्-पृथक् उनके स्वरूप का विवेचन किया गया है। काल की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट वेदना किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्र में कहा गया है कि वह अन्यतर पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, सब पर्याप्तियों से पर्याप्त कर्मभूमिज अथवा अकर्मभूमिज आदि के होती है (सूत्र ४,२,६,८)। इसकी व्याख्या में धवलाकार ने सूत्रों में प्रयुक्त अनेक पदों का पृथक्-पृथक् विवेचन कर उनकी सार्थकता दिखलायी है । विशेष ज्ञातव्य यहाँ यह है कि प्रकृत सूत्र में प्रयक्त 'अकर्मभूमिज' शब्द से धवलाकार ने देव-नारकियों को और 'कर्मभूमिप्रतिभाग' से स्वयंप्रभ पर्वत के बाह्य भाग में उत्पन्न होनेवाले जीवों को ग्रहण किया है। धवलाकार ने कहा है कि इसके पूर्व सूत्र में प्रयुक्त 'कर्मभूमिज' शब्द से यह अभिप्राय था कि पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्पन्न जीव ही ज्ञानावरण की उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं। इस प्रकार देव-नारकियों और स्वयंप्रभ पर्वत के परभागवर्ती जीवों के ज्ञानावरण की उत्कृष्ट स्थिति के बन्ध का निषेध प्रकट होता था। अतः ऐसा अनिष्ट प्रसंग प्राप्त न हो, इसके लिए सूत्र में आगे ‘अकर्मभूमिज' और 'कर्मभूमिप्रतिभाग' को ग्रहण किया गया है। इसी प्रकार सूत्र में प्रयुक्त 'असंख्यातवर्षायुष्क' से एक समय अधिक पूर्वकोटि आदि रूप आगे की आयुवाले तियंच-मनुष्यों को न ग्रहण करके देव-नारकियों को ग्रहण किया गया है। __ इस प्रसंग में यह शंका उत्पन्न हुई है कि देव-नारकियों में भी तो संख्यात वर्ष की आयुवाले हैं । उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि सचमुच ही वे असंख्यात वर्ष की आयुवाले नहीं हैं, बट्खण्डागम पर टीकाएँ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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