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________________ है, क्योंकि उनके विषय में उपदेश प्राप्त नहीं है। वेदनीय को अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदना क्षेत्र की अपेक्षा वेदनीय की उत्कृष्ट वेदना जो केवली के होती है, उससे भिन्न उसकी अनुत्कृष्ट वेदना है, यह आगे के सूत्र में निर्दिष्ट है (सूत्र ४,२,५,१६-१७)। यह अनुत्कृष्ट वेदनीय की क्षेत्रवेदना उत्कृष्ट रूप में प्रतरसमुद्घातगत केवली के होती है, क्योंकि उसके अन्य अनुत्कृष्ट क्षेत्र में इससे अधिक क्षेत्र अन्यत्र सम्भव नहीं है । यह अनुत्कृष्ट क्षेत्र पूर्वोक्त उत्कृष्ट क्षेत्र से विशेष हीन है, क्योंकि इसमें वातवलयों के भीतर जीवप्रदेश नहीं रहते, जबकि लोकपूरणसमुद्घात में वातवलयों के भीतर भी जीवप्रदेश रहते हैं । यह वेदनीय की अनुत्कष्ट क्षेत्र वेदना का प्रथम विकल्प है। इसके अनन्तर अनुत्कृष्ट क्षेत्र का स्वामी वह केवली है जो सबसे विशाल अवगाहना से कपाटसमुद्घात को प्राप्त है । यह उस अनुत्कृष्टक्षेत्रवेदना का दसरा विकल्प है जो पर्वोक्त अनत्कष्ट क्षेत्र से असंख्यातगणा हीन है। धवला में वेदनीय की अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदना के तृतीय, चतुर्थ आदि विकल्पों को भी स्पष्ट किया गया है। ___ आगे धवला में इन क्षेत्रों के स्वामी जीवों की प्ररूपणा पूर्व पद्धति के अनुसार प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन छह अनुयोगद्वारों में की गयी है (पु. ११, पृ० ३०-३३)। शानावरणीय की जघन्य क्षेत्रवेदना ज्ञानावरणीय की जघन्य क्षेत्रवेदना सर्वजघन्य अवगाहना में वर्तमान तीन समयवर्ती आहारक व तीन समयवर्ती तद्भवस्थ सूक्ष्मनिगोद जीव अपर्याप्तक के कही गयी है । उसकी अजघन्य क्षेत्रवेदना उससे भिन्न है, यह सूत्र में निर्दिष्ट है (सूत्र ४,२,५,१६-२१)। इसकी व्याख्या करते हुए धवला में कहा गया है कि ज्ञानावरण की अजघन्य क्षेत्रवेदना अनेक प्रकार की है। उनके स्वामियों की प्ररूपणा करते हुए कहा है कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग का विरलन करके, धनांगुल को समखण्ड करने पर एक-एक रूप के प्रति सूक्ष्मनिगोद जीव की जघन्य अवगाहना प्राप्त होती है। इसके आगे एक प्रदेश अधिक के क्रम से वहीं पर स्थित निगोद जीव अजघन्य क्षेत्रवेदना में जघन्य क्षेत्र का स्वामी है । आगे भी इसी पद्धति से धवला में अजघन्य क्षेत्रवेदना के द्वितीयादि विकल्पों का विवेचन है। प्रसंग के अन्त में यहां पूर्वोक्त प्ररूपणा-प्रमाणादि छह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उत्कृष्टअनुत्कृष्ट क्षेत्रों के समान करने की सूचना दी गयी है। ___अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में सूत्रकार द्वारा जो जघन्यपद, उत्कृष्टपद और जघन्य-उत्कृष्टपद इन तीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से प्रकृत क्षेत्रवेदनाविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है उसमें विशेष व्याख्येय कुछ नहीं है। ६. वेदनाकालविधान काल के प्रकार—यहाँ प्रारम्भ में धवला में काल के ये सात भेद निर्दिष्ट किये गये हैंनामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्यकाल, सामाचारकाल, अदाकाल प्रमाणकाल, और भावकाल । आगे क्रम से इन सब के स्वरूप का स्पष्टीकरण है। उस प्रसंग में तद्व्यतिरिक्त नोमागमकाल ४०८/घट्सण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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