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निरर्थक है।
इस शंका का निराकरण करते हुए धवला में कहा गया है कि उक्त तीन अनुयोगद्वारों के द्वारा प्ररूपणा कर देने पर वह वेदनाकालविधान समाप्त हो ही चुका है। किन्तु समाप्त हुए उस कालविधान की आगे ग्रन्थ द्वारा यह चूलिका कही जा रही है। कालविधान से सूचित अर्यों का विवरण देना इस चूलिका का प्रयोजन है। क्योंकि जिस अर्थप्ररूपणा के करने पर पूर्व प्ररूपित अर्थ के विषय में शिष्यों को निश्चय उत्पन्न होता है वह चूलिका कहलाती है । इसलिए यह आगे का ग्रन्थ सम्बद्ध ही है, ऐसा समझना चाहिए (पु० ११, पृ० १४०)।
यहाँ सूत्रकार द्वारा स्थितिबन्ध स्थानों की प्ररूपणा में स्थितिबन्धस्थानों के जिस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है, धवलाकार ने उसे अव्वोगाढअल्पबहुत्वदण्डक देशामर्शक कहा है, और उसके अन्तर्गत चार प्रकार के अल्पबहुत्व का निरूपण किया है। वहाँ सर्वप्रथम अल्पबहुत्व के इन दो भेदों का निर्देश है-मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व और अन्वोगाढअल्पबहुत्व । आगे उनमें से प्रथमतः स्वस्थान और परस्थान के भेद से दो प्रकार के अव्वोगाढअल्पबहुत्व की और तत्पश्चात् स्वस्थान और परस्थान के भेद से दो प्रकार के मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व की प्ररूपणा हुई है।'
पश्चात् धवला में संक्लेश-विशुद्धिस्थानों के अल्पबहुत्व के प्रसंग में कर्मस्थिति के बन्ध के कारणभूत परिणामों का निरूपण प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से किया गया है (पु० ११, पृ० २०५-१०)।
सूत्रकार द्वारा यहां सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के संक्लेश-विशुद्धिस्थानों से बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के संक्लेश-विशुद्धिस्थानों को असंख्यातगुणा निर्दिष्ट किया गया है।
(सूत्र ४,२,६,५१-५२) इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि यद्यपि 'असंख्यातगुणत्व' बुद्धिमान शिष्यों के के लिए सुगम है, तो भी मन्दबुद्धि शिष्यों के अनुग्रहार्थ हम यहाँ असंख्यातगुणत्व के साधन को कहते हैं, ऐसी सूचना कर उन्होंने संदृष्टिपूर्वक उसका विस्तार से स्पष्टीकरण किया है।
निषेकप्ररूपणा के प्रसंग में अन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा के समाप्त हो जाने पर धवलाकार ने श्रेणिप्ररूपणा से सूचित अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है।
आवाधाकाण्डकप्ररूपणा के प्रसंग में सूत्र में कहा गया है कि पंचेन्द्रिय संज्ञी-असंज्ञी व चतुरिन्द्रिय आदि जीवों की आयु को छोड़कर शेष सात कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति से एक-एक समय के क्रम से पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र नीचे जाकर एक आबाधाकाण्डक होता है । यह उनकी जघन्य स्थिति तक चलता है (सूत्र ४,२,६,१२२)।
इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि आबाधा के अन्तिम समय को विवक्षित कर जीव उत्कृष्ट स्थिति को बांधता है । उसी आबाधा के अन्तिम समय को विवक्षित कर वह एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति को भी बांधता है। इस क्रम से वह उस आबाधा के अन्तिम समय को विवक्षित कर दो समय कम, तीन समय कम इत्यादि के क्रम से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र से कम तक उत्कृष्ट स्थिति को बांधता है । इस प्रकार आबाधा के अन्तिम समय से बन्ध के
१. धवला पु० ११, पृ० १४७-२०५ (अन्योक अल्प० पृ० १४७-८२, मूल प्र० अल्प०, पृ०
१८२-२०५)
षट्सम्हामम पर टीकाएँ । ४६१
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