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(७) वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी के विकल्पों के प्ररूपक सूत्र (५,५,१२० ) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उस प्रसंग में दो भिन्न मतों का उल्लेख किया है और आगे यह भी कह दिया है कि ये दोनों मत सूत्रसिद्ध हैं, क्योंकि आगे उन दोनों उपदेशों के अनुसार पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व की वहाँ प्ररूपणा की गयी है ।
इस पर वहाँ धवला में यह शंका उठायी गयी है कि विरुद्ध दो अर्थों का प्ररूपक सूत्र कैसे हो सकता है । इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह सत्य है, जो सूत्र है वह अविरुद्ध अर्थ का ही प्ररूपक होता है । किन्तु यह सूत्र नहीं है, सूत्र के समान होने से उसे उपचार से सूत्र माना गया है । इस प्रसंग में आगे उन्होंने सूत्र के स्वरूप की प्ररूपक "सुत्तं गणधर कहियं " इत्यादि गाथा को उद्धृत करते हुए यह कहा है कि भूतबलि भट्टारक गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली अथवा अभिन्नदशपूर्वी नहीं हैं, जिससे यह सूत्र हो सके ।
इस पर उसके अप्रमाणत्व की आशंका को हृदयंगम करते हुए आगे धवलाकार ने कहा है कि राग, द्वेष और मोह से रहित होने के कारण चूंकि वह प्रमाणीभूत पुरुषों की परम्परा से प्राप्त है, इसलिए उसे अप्रमाण नहीं कहा जा सकता है ।
यहाँ यह विशेषता रही है कि धवलाकार ने इस विषय में अपने अभिप्राय को व्यक्त करते हुए अन्त में यह भी कहा है कि हमारा तो यह अभिप्राय है कि प्रकृत सूत्र का प्रथम प्ररूपित अर्थं ही समीचीन है, दूसरा समीचीन नहीं है । इसके कारण को भी उन्होंने स्पष्ट कर दिया है । इसकी पुष्टि में आगे उन्होंने यह भी कहा है कि कुछ सूत्रपोथियों में दूसरे अर्थ के आश्रय से प्ररूपित अल्पबहुत्व का अभाव भी है।'
यहाँ धवलाकार ने प्रथम तो प्रकृत सूत्र के दोनों व्याख्यानों को सूत्रसिद्ध मान लिया है, क्योंकि उन दोनों व्याख्यानों के अनुसार प्रकृत आनुपूर्वीविकल्पों में मूल सूत्रों में ही दो प्रकार से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है । — देखिए सूत्र १२३ २७ व १२८-३२
अन्त में उन्होंने अपने स्वतन्त्र अभिप्राय के अनुसार प्रथम व्याख्यान को यथार्थ और दूसरे व्याख्यान को अयथार्थ बतलाया है । उसका एक कारण यह भी रहा है कि कुछ सूत्रपोथियों में दूसरे प्रकार के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा नहीं उपलब्ध होती है ।
सूत्र के अभाव में आचार्य परम्परागत व गुरु के उपदेश को महत्त्व
यह पूर्व में कहा जा चुका है कि धवलाकार के समक्ष जहाँ तकं विवक्षित विषय से सम्बन्धित सूत्र रहा है, उन्होंने उसे ही महत्त्व दिया है। किन्तु जब उनके समक्ष विवक्षित विषय से सम्बद्ध सूत्र नहीं रहा है तब उन्होंने आचार्य परम्परागत उपदेश या गुरूपदेश को भी महत्त्व दिया है। इसके लिए यहाँ कुछ उदाहरण दिए जाते हैं
(१) जीवस्थान- द्रव्यप्रमाणानुगम में सूत्रकार द्वारा प्रमत्तसंयतों का प्रमाण कोटिपृथक्त्व निर्दिष्ट किया गया है । -सूत्र १,२,७
इसकी व्याख्या के प्रसंग में धवला में यह शंका की गयी है कि 'कोटिपृथक्त्व' से तीन करोड़ के नीचे की संख्या को ग्रहण करना चाहिए। पर उसके अनेक विकल्प होने से उनमें से प्रकृत में कौन सी संख्या अभिप्रेत रही है, यह नहीं जाना जाता । इसके स्पष्टीकरण
धवलाकार
१. धवला, पु० १३, पृ० ३७७-८२
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वीरसेनाचार्य की व्याख्यान -पद्धति / ७१७
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