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________________ किन्तु सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थसूत्र की व्याख्या रूप ग्रन्थ है, इसलिए उसमें तत्त्वार्थसूत्र के ही विषयों का संक्षेप में स्पष्टीकरण किया गया है । संक्षिप्त होते हुए भी वह अर्थबहुल है । उसे यदि वृत्ति सूत्र रूप ग्रन्थ कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । जयधवला में जो यह वृत्तिसूत्र का लक्षण कहा गया है वह सर्वार्थसिद्धि में भी घटित होता है " तस्सेव विवरणाए संखित सद्दयणाए संगहिदसुत्तासेसत्थाए वित्तिसुत्तववएसादो ।" -- क०पा० सुत्त की प्रस्तावना, पृ० १५ अर्थात् सूत्र के जिस विवरण या व्याख्यान में शब्दों की रचना संक्षिप्त हो, फिर भी जिसमें सूत्र के अन्तर्गत समस्त अर्थ का संग्रह किया गया हो उसका नाम वृत्तिसूत्र है । यही कारण है कि भट्टाकलंकदेव ने सर्वार्थसिद्धि के अधिकांश वाक्यों को अपनी कृति तत्त्वार्थवार्तिक में यथाप्रसंग आत्मसात् कर उनके आश्रय से विवक्षित विषय को स्पष्ट किया है।" ६. षट्खण्डागम और तत्त्वार्थवार्तिक तत्त्वार्थवार्तिक यह आचार्य भट्टा कलंकदेव ( ई० सन् ७२०-८० ) के द्वारा विरचित तत्त्वार्थ (१) एवं सुतं मंदबुद्धिसिस्ससंभालणट्ठ खेत्ताणि ओगद्वारे उत्तमेव पुणवि उत्तं .....। ( पु० ४, पृ० १४८) (२) पुणरुत्तत्तादो ण वत्तव्वमिदं सुत्तं ? ण, सव्वेसि जीवाणं सरिसणाणावरणीयकम्मक्खओवसमाभावा । तदो भट्टसंसकारसिस्ससंभालणट्ट वत्तव्वमिदं सुत्तं । (पु० ६, पृ० ८१ ) ( पु० ६, पृ० ८४ ) (३) ण एस दोसो, अइजडसिस्ससंभालणट्ठत्तादो । (४) विस्सरणालुसिस्ससंभालणट्टमिदं सुत्तं । (५) एदेण पुव्वत्तपयारेण दंण मोहणीयं उवसामेदित्ति पुब्वुत्तत्यो चेव सुत्तेण संभालिदो । ( पु० ६, पृ० ८७ ) ( पु० ६, पृ० २३८ ) (६) पुणरुत्तत्तादो णेदं सुत्तं वत्तव्वं ? ण एस दोसो, जडमइसिस्साणुग्गह्हेदुत्तादो । ( पु० ६, पृ० ४८४ ) (७) ण च एत्थ पुणरुत्तदोसो, मंदबुद्धीणं पुणरुत्तपुण्वुत्तत्यसंभालणेण फलोवलंभादो । (पु० ७, पृ० ३६६ ) इसी प्रकार नगमादि नयों के और औपशमिक आदि भावों के स्वरूप से सम्बन्धित वाक्यों को भी दोनों ग्रन्थों में देखा जा सकता है । २. उदाहरण स्वरूप दोनों ग्रन्थगत ये प्रसंग देखे जा सकते हैं (१) आत्म-कर्मणोरन्योन्यप्र देशानुप्रवेशात्मको बन्धः । (२) आस्रवनिरोधलक्षणः संवरः । (३) एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा । (४) ऋत्स्नकर्मविप्रयोगलक्षणो मोक्षः । (५) अभ्यर्हितत्त्वात् प्रमाणस्य तत्पूर्वनिपातः । २०८ / ट्खण्डागम-परिशीलन ( सर्वार्थसिद्धि १-४ व तत्त्वार्थवार्तिक १, ४, १७) Jain Education International ( सर्वार्थसिद्धि १-४ व त०वा० १, ४, १८ ) ( सर्वार्थसिद्धि १-४ व त०वा० १, ४, १६) ( सर्वार्थसिद्धि १-४ व त०वा० १, ४, २० ) ( सर्वार्थसिद्धि १-६ व त०वा० १, ६, १ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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