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है। उस सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्त और सर्वविशुद्ध होता है।
यही अभिप्राय स० सि० में भी समान रूप से प्रकट किया गया है। दोनों ग्रन्थों की दह समानता इस प्रकार देखी जा सकती है
"एवदिकालद्विदिएहि कम्मेहि सम्मत्तं ण लहदि । लभदि त्ति विभाषा। एदेसि चेव सव्वकम्माणं जावे अंतोकोडाकोडिट्ठिदि बंधदि तावे पढमसम्मत्तं लभदि । सो पुण पंचिंदियो सण्णी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तओ सव्वविसुद्धो। एदेसिं चेव सव्वकम्माणं जाधे अंतोकोडाकोडिदिदि उवेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि ऊणियं ताधे पढमसम्मत्तमुप्पादेदि।"
--ष०ख०, सूत्र १,६-८,१-५ (पु० ६) "अपरा कर्मस्थिति काललब्धिः--उत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति । क्व तहि भवति ? अन्तःकोटाकोटीसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामवशात् सत्कर्मसु च ततः संख्येयसागरोपमसहस्रोनायायन्तःकोटाकोटीसागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति । अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया-भव्यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तकः सर्वविशुद्धः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति । आदिशब्देन' जातिस्मरणादिः परिगृह्यते।"
दोनों ग्रन्थगत इन सन्दर्भो में शब्द और अर्थ की समानता द्रष्टव्य है । उपसंहार
ऊपर षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि दोनों ग्रन्थों के जिन प्रसंगों को तुलनात्मक दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है उनमें परस्पर की शब्दार्थ विषयक समानता को देखते हुए इसमें सन्देह नहीं रहता कि सर्वार्थसिद्धि के कर्ता आ० पूज्यपाद के समक्ष प्रस्तुत ष० ख० रहा है और उन्होंने सर्वार्थसिद्धि की रचना में यथाप्रसंग उसका पूरा उपयोग किया है। जैसा कि पूर्व में किये गये विवेचन से स्पष्ट हो चुका है, स०सि० में तत्त्वार्थसूत्र के 'सत्संख्यादि' सूत्र (१-८) की व्याख्या करते हुए ष० ख० के प्रथम खण्ड जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणादि आठों अनुयोगद्वारों में प्ररूपित प्रायः समस्त ही अर्थ का संक्षेप में संग्रह कर लिया गया है ।
विशेष इतना कि षट्खण्डागम आगम ग्रन्थ है, अत: उसकी रचना उसी आगमपद्धति से प्रायः प्रश्नोत्तर शैली के रूप में हुई है, इससे उसकी रचना में पुनरुक्ति भी है। इसके अतिरिक्त उसकी रचना मन्दबुद्धि और तीव्रबुद्धि शिष्यों को लक्ष्य में रखकर हुई है, इसलिए विशदीकरण की दृष्टि से भी उसमें पुनरुक्ति हुई है। इसे धवलाकार ने जहाँ तहाँ स्पष्ट भी किया है।
१. यह पद इसके पूर्व छठी और सातवीं चूलिका में प्ररूपित कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य
स्थिति का सूचक है। २. स० सि० में इसके पूर्व यह शंका की गई है कि अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मोदय से
उत्पन्न हुई कलुषता के होने पर अनन्तानुबन्धी आदि सात प्रकृत्तियों का उपशम कैसे होता है। इसके समाधान में वहाँ 'काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात्' कहा गया है। इसमें
'काललब्धि' के आगे जो आदि शब्द प्रयुक्त हुआ है उसी की ओर यह संकेत है। ३. इसके लिए धवला के ये कुछ प्रसंग द्रष्टव्य है- (प्रसंग पृष्ठ २०८ पर देखिए)
षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २०७
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