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होति ? जहणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण छावद्विसागरोवमाणि । उव समसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी के चिरं कालादो होंति ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।"
--सूत्र २,२,१८८- ६६ ( पु० ७ ) "स्थिति रौपशमिकस्य जघन्योत्कृष्टा चान्तर्मी हूर्तिकी । क्षायिकस्य संसारिणो जघन्यान्तहूर्त । उत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि सान्तर्मुहूर्ताष्टवर्ष हीन - पूर्व कोटिद्वयाधिकानि । मुक्तस्य सादिरपर्यवसाना । क्षायोपशमिकस्य जघन्यान्तम हूर्तिकी । उत्कृष्टा षट्षष्ठिसागरोपमाणि । " स० [सि० पृ० १२
इस प्रकार इस स्थिति का प्रसंग भी दोनों ग्रन्थों में सर्वथा समान है । विशेषता यह है कि ष० ख० में सामान्य सम्यग्दृष्टियों के काल को भी प्रकट किया गया है, जिसका उल्लेख सर्वार्थसिद्धि में पृथक् से नहीं किया गया है, क्योंकि वह विशेष प्ररूपणा से सिद्ध है । इसके अतिरिक्त ष० ख० में जहाँ उस सम्यक्त्व के आधारभूत सम्यग्दृष्टियों के काल का निर्देश है वहाँ सर्वार्थसिद्धि में सम्यक्त्वविशेषों के काल को स्पष्ट किया गया है । इससे अभिप्राय में कुछ भी भेद नहीं हुआ है ।
ष० ख० में प्रथमतः क्षायिक सम्यग्दृष्टियों और तत्पश्चात् वेदक ( क्षायोपशमिक ) सम्यदृष्टियों व औपशमिक सम्यग्दृष्टियों के काल को दिखलाया गया है । किन्तु सर्वार्थसिद्धि में प्रथमतः औपशमिक और तत्पश्चात् क्षायिक व औपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति को प्रकट किया गया है । इससे केवल प्ररूपणा के क्रम में भेद हुआ है ।
ष०ख० में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों के उत्कृष्ट काल का निर्देश करते हुए उसे साधिक तेतीस सागरोपम कहकर उसकी अधिकता को स्पष्ट नहीं किया गया है। किन्तु सर्वार्थसिद्धि में उस अधिकता को स्पष्ट करते हुए उसे अन्तर्मुहूर्त आठ वर्ष से हीन दो पूर्वकोटियों से अधिक कहा गया है ।"
सर्वार्थसिद्धि में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि क्षायिक सम्यक्त्व की यह उत्कृष्ट स्थिति संसारी जीव की अपेक्षा निर्दिष्ट है । मुक्तजीव की अपेक्षा क्षायिकसम्यक्त्व की स्थिति आदि व अन्त से रहित है ।
सर्वार्थसिद्धि की यह संक्षिप्त प्ररूपणा बहुत अर्थ से गर्भित है ।
ष०ख० में सम्यक्त्वमार्गणा के अन्तर्गत होने से सम्यग्मिथ्यादृष्टियों, सासादन सम्यग्दृष्टियों और मिथ्यादृष्टियों के काल का भी उल्लेख है ( २,२,११७-२०३) ।
४. ष० ख० में जीवस्थान से सम्बद्ध नौ चूलिकाओं में आठवीं सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका है । वहाँ सर्वप्रथम सम्यक्त्व कब, कहाँ और किस अवस्था में उत्पन्न होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति के होने पर प्राप्त नहीं होता । किन्तु जीव जब सब कर्मों की अन्तःकोड़ाकोड़ा प्रमाण स्थिति को बाँधता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । उसमें भी जब वह उक्त अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति को संख्यात हजार सागरोपम से हीन स्थापित करता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता
१. ष० ख० की टीका में उस अधिकता को सर्वार्थसिद्धि के समान स्पष्ट कर दिया गया है । साथ ही वहाँ वह कैसे घटित होता है, इसे भी स्पष्ट कर दिया है ।
- ( धवला पु० ७, पृ० १७६ -८० )
२०६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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