SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र की एक विस्तृत व्याख्या है। आचार्य वीरसेन ने इसका उल्लेख तत्त्वार्थ भाष्य के नाम से किया है ।' प्रा० अकलंकदेव अपूर्व दार्शनिक विद्वान होने के साथ सिद्धान्त के भी पारंगत रहे हैं | अपनी इस व्याख्या में उन्होंने जहाँ दार्शनिक विषयों का महत्त्वपूर्ण विश्लेषण किया है वही उन्होंने सैद्धान्तिक विषयों को भी काफी विकसित किया है । इसके अतिरिक्त उनकी इस व्याख्या में जहाँ तहाँ जो शब्दों की निरुक्ति व उनके साधन की प्रक्रिया देखी जाती है। उससे निश्चित है कि वे शब्दशास्त्र के भी गम्भीर विद्वान रहे हैं । उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यस्वरूप अपनी इस विस्तृत व्याख्या के रचने में प्रस्तुत ष०ख० का अच्छा उपयोग किया है । कहीं-कहीं उन्होंने ष० ख० के सूत्रों को उसी क्रम से छाया के रूप में प्रस्तुत भी किया है । इसी प्रकार उन्होंने सर्वार्थसिद्धि के भी बहुत से वाक्यों को तत्त्वार्थवार्तिक में आत्मसात् कर उनके आधार पर विवक्षित तत्त्व की विवेचना की है। विशेष इतना है कि स०सि० में जहाँ तत्त्वार्थ सूत्र के 'सत्संख्या' आदि सूत्र की व्याख्या में सूत्र में निर्दिष्ट उन सत्प्ररूपणा आदि आठ अनुयोगद्वारों की विस्तृत प्ररूपणा है वहाँ तत्त्वार्थवार्तिक में केवल सत् व संख्या आदि के स्वरूप को ही दिखलाया गया है, उनके आश्रय से वहाँ जीवस्थानों की प्ररूपणा नहीं की गई है । उनकी प्ररूपणा वहाँ आगे जाकर 'अनित्याशरण - संसार' आदि सूत्र ( ६-७ ) की व्याख्या में मात्र सत्प्ररूपणा के आधार से की गई है । षट्खण्डागम के टीकाकार आ० वीरसेन स्वामी ने अपनी धवला टीका में तत्त्वार्थवार्तिक का आश्रय लिया है । कहीं-कहीं उन्होंने इसके वाक्यों को व प्रसंगप्राप्त पूरे सन्दर्भ को भी उसी रूप में अपनी इस टीका में आत्मसात् कर लिया है। इसके अतिरिक्त जैसा कि पीछे कहा जा चुका है, कहीं पर उन्होंने 'उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये' इस नाम निर्देश के साथ भी उसके वाक्यों को प्रसंग के अनुसार उद्धृत किया है । आगे यहाँ तुलनात्मक दृष्टि से उदाहरण के रूप में कुछ ऐसे प्रसंग उपस्थित किये जा हैं जो ष० ख० और त० वा० दोनों ग्रन्थों में समान रूप से उपलब्ध होते हैं । इतना ही नहीं, कहीं-कहीं तो तत्त्वार्थवार्तिककार ने प० ख० के अन्तर्गत खण्ड और अनुयोगद्वार आदि का भी स्पष्टतया उल्लेख कर दिया है । जैसे I १. त० वा० में 'भवप्रत्ययोऽवधिर्देव-नारकाणाम्' सूत्र (१-२१ ) की व्याख्या के प्रसंग में यह शंका उठाई गई है कि आगमपद्धति के अनुसार इस सूत्र में 'नारक' शब्द का पूर्व में निपात होना चाहिए । कारण यह कि आगम ( षट्खण्डागम) में 'जीवस्थान' आदि खण्डों के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा आदि अनुयोगद्वारों में आदेश की अपेक्षा विवक्षित सत्-संख्या आदि की प्ररूपणा करते हुए सर्वत्र प्रथमतः नारकियों में ही उन 'सत्' आदि की प्ररूपणा की गई है । १. धवला पु० १, पृ० १०३ ( उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये ) २. जैसे—— वाक्संस्कारकारणानि शिरः कण्ठादीन्यष्टो स्थानानि । वाक्प्रयोगशुभेतरलक्षणः सुगमः ( वक्ष्यते ) । -धवला पु० १, पृ० ११६ तथा त०वा० १,२०, १२, पृ० ५२ आगे ‘अभ्याख्यानवाक् ́ आदि रूप बारह प्रकार की भाषा और 'नाम-रूप' आदि दस प्रकार के सत्यवचन से सम्बन्धित पूरा सन्दर्भ दोनों में सर्वथा समानरूप में उपलब्ध होता है । देखिए धवला पु० १,११६ १८ और त० वा० १, २०, १२ ( पृ० ५२ ) । ३. 'उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये ।' -धवला पु० १, पृ० १०३ Jain Education International खण्ड की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २०६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy