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मनुष्यणी और मनुष्य अपर्याप्त ये सब पृथक्-पृथक् सब जीवों के अनन्तवें भाग प्रमाण
देवगति में सामान्य से देव और विशेष रूप से भवनवासियों को आदि लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों तक सब ही पृथक्-पृथक् सब जीवों के अनन्तवें भाग प्रमाण हैं (८-१०)। ____ इसी पद्धति से आगे इन्द्रियादि अन्य मार्गणाओं के आश्रय से प्रस्तुत भागाभाग का विचार किया गया है । यहाँ सब सूत्र ८८ हैं ।
११. अल्पबहुत्वानुगम
इस अन्तिम अनुयोगद्वार में गति-इन्द्रिय आदि उन चौदह मार्गणाओं में वर्तमान जीवों के प्रमाणविषयक हीनाधिकता का विचार किया गया है। यहाँ गतिमार्गणा के प्रसंग में सर्वप्रथम पांच गतियों की सूचना करते हुए उनमें इस प्रकार अल्पबहुत्व प्रकट किया गया है
मनुष्य सबसे स्तोक हैं, नारकी उनसे असंख्यातगुणे हैं, देव असंख्यातगुणे हैं, सिद्ध अनन्तगुणे हैं, और तिर्यंच उनसे अनन्तगुणे हैं (१-६) ।
___ आगे प्रकारान्तर से आठ गतियों की सूचना करते हुए उनमें इस प्रकार से अल्पबहुत्व का निर्देश किया गया है____ मनुष्यणी सबसे स्तोक हैं, मनुष्य उनसे असंख्यातगुणे हैं, नारकी असंख्यातगुणे हैं, पंचेन्द्रिय तियंच योनिमती असंख्यातगुणी हैं, देव संख्यातगुणे हैं, देवियाँ संख्यातगुणी हैं, सिद्ध अनन्तगुणे हैं, और उनसे तिर्यच अनन्तगुणे हैं (७-१५)।
दूसरी इन्द्रियमार्गणा में जीवों के अल्पबहुत्व को इस प्रकार प्रकट किया गया हैइन्द्रियमार्गणा के अनुसार पंचेन्द्रिय सबसे स्तोक हैं, चतुरिन्द्रिय उनसे विशेष अधिक हैं, त्रीन्द्रिय विशेष अधिक हैं, द्वीन्द्रिय विशेष अधिक हैं, अनिन्द्रिय अनन्तगुणे हैं, और उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुणे हैं (१६-२१)।
इस इन्द्रियमार्गणा में पर्याप्त-अपर्याप्तों का भेद करके प्रकारान्तर से पुन: उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है (२२-३७) ।
इसी पद्धति से आगे क्रम से कायमार्गणा आदि अन्य मार्गणाओं में प्रस्तुत अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । यहाँ सब सूत्र २०५ हैं।
जैसा कि ऊपर गति और इन्द्रिय मार्गणा में देख चुके हैं, कुछ अन्य मार्गणाओं में भी अनेक प्रकार से उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । जैसे
कायमार्गणा में चार प्रकार से (३८-४४, ४५-५६, ६०-७५ व ७६-१०६); योगमार्गणा में दो प्रकार से (१०७-१० व १११-२६); वेदमार्गणा में दो प्रकार से (१३०-३३ व १३४४४); संयममार्गणा में संयतों के अल्पबहुत्व को दिखाकर (१५६-६७) आगे संयतभेदों में चारित्रलब्धिविषयक अल्पबहुत्व को भी प्रकट किया गया है (१६८-१७४); सम्यक्त्वमार्गणा में उस अल्पबहुत्व को दो प्रकार से प्रकट किया गया है (१८६-६२ व १६३-६६)।
यहाँ कायमार्गणा के अन्तर्गत जिस अल्पबहुत्व की चार प्रकार से प्ररूपणा की गई है उसमें सूत्र ५८-५६, ७४-७५, व १०५-६ में निगोद जीवों को वनस्पतिकायिकों से विशेष अधिक कहा गया है। साधारणत: निगोदजीव वनस्पतिकायिकों के ही अन्तर्गत माने गये हैं, उनसे भिन्न निगोदजीव नहीं माने गये। पर इस अल्पबहुत्व से उनकी वनस्पतिकायिकों से
७० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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