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अर्थकर्ता कहलाता है। और, जो उन बीजपदों में गर्भित अर्थ के प्ररूपक उन बारह अंगों की रचना करता है वह गणधर होता है, उसे ही ग्रन्थकर्ता माना गया है । तात्पर्य यह है कि बीजपदों का व्याख्याता ग्रन्थकर्ता कहा जाता है । इस प्रकार अर्थकर्ता से पृथक् ग्रन्थकर्ता की प्ररूपणा करना उचित ही है (पु० ६, पृ० १२६-२७) ।
दिव्यध्वनि
प्रसंग के अनुसार यहाँ तुलनात्मक दृष्टि से दिव्यध्वनि के विषय में कुछ विचार कर लेना उचित प्रतीत होता है। ___ आचार्य समन्तभद्र ने अर्हन्त जिनेन्द्र की दिव्यध्वनि की विशेषता को प्रकट करते हुए कहा है
तव वागमतं श्रीमत् सर्वभाषास्वभावकम् ।
प्रीणयत्यमतं यद्वत् प्राणिनो व्यापि संसदि ॥-स्वयम्भू० ६६ अर्थात् हे भगवन् ! आपका वचनरूप अमृत (दिव्यवाणी) समस्त भाषारूप में परिणत होकर समवसरणसभा में व्याप्त होता हुआ प्राणियों को अमृतपान के समान प्रसन्न करता है।
इस प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने अरहन्त की दिव्यवाणी को समस्त भाषा रूप कहा है।
यह दिव्यवाणी इच्छा के बिना ही प्रादुर्भूत होती है, समन्तभद्राचार्य ने इसे भी स्पष्ट किया है
काय-वाक्य-मनसां प्रवृत्तयो नाभवंस्तव मुश्चिकीर्षया । नासमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर तावकमचिन्त्यमीहितम् ॥-स्वयम्भू०७४ अनात्मार्थ विना रागः शास्ता शास्ति सतो हितम् ।
ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते ॥--रत्नकरण्डश्रावकाचार, ८ तदनुसार समस्त भाषास्वरूप परिणत होनेवाली इस दिव्यध्वनि को अतिशयरूप ही समझना चाहिए, जिसे आ० समन्तभद्र ने 'धीर तावकमचिन्त्यमोहितम्' शब्दों में व्यक्त भी कर दिया है।
तिलोयपण्णत्ती में तो, तीर्थंकरों के केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर प्रकट होने वाले ग्यारह अतिशयों के अन्तर्गत ही उसका उल्लेख है। धवला की तरह तिलोयपण्णत्ती में भी यह स्पष्ट किया गया है कि संज्ञी जीवों की जो अक्षर-अनक्षरात्मक समस्त अठारह भाषाएँ और सात सौ क्षुद्र भाषाएँ हुआ करती हैं उनमें यह दिव्यवाणी तालु, दन्त, ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित होकर प्रकृति से- इच्छा के बिना स्वभावतः- तीनों सन्ध्याकालों में नौ मुहर्त निकलती है, शेष समयों में वह गणधरादि कुछ विशिष्ट जनों के प्रश्नानुरूप भी निकलती है। _ विशेषता यहाँ यह रही है कि धवला में जहाँ उन भाषाओं का उल्लेख अठारह भाषाओं और सात सौ कुभाषाओं के रूप में किया गया है वहाँ तिलोयपण्णत्ती में उनका उल्लेख अठारह
१. यही अभिप्राय भक्तामर-स्तोत्र में भी इस प्रकार व्यक्त किया गया हैस्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्टः सद्धर्मतत्त्वकथनकपटुस्त्रिलोक्याः ।
दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थ-सर्वभाषास्वभावपरिणामगुणप्रयोज्यः ।।-भक्तामर, ३५ २. ति० प० ४, ८६६-६०६ (इसके पूर्व गाथा १-७४ भी द्रष्टव्य है)।
षट्खण्डागम पर टीकाएं / ४६५
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