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महाभाषाओं और सात सौ क्षुद्रमाचाओं के रूप में किया गया है।
कल्याणमन्दिर-स्तोत्र (२१) में दिव्यवाणी को हृदयरूप समुद्र से उद्भूत अमृत' कहा गया है। इसे भोपचारिक कथन समझना चाहिए, क्योंकि वह हृदय या अन्तःकरण की प्रेरणा से नहीं उत्पन्न होती।
स्वयं धवलाकार आ० वीरसेन ने 'कषायप्राभूत' की टीका जयधवला (पु० १, पृ० १२६) में दिव्यध्वनि की विशेषता को प्रकट करते हुए उसे समस्त भाषारूप, अक्षर-अनक्षरात्मक, अमन्त अर्थ से गर्भित बीजपदों से निर्मित, तीनों सन्ध्यायों में निरन्तर छह घड़ी तक प्रवास रहने वाली तथा अन्य समयों में संशयादि को प्राप्त गणधर के प्रति स्वभावतः प्रवृत्त होनेवाली कहा है। ___यह अभिप्राय प्राय: तिलोयपण्णत्ती के ही समान है। अन्तर मात्र यह है कि तिलोयपण्णत्ती में जहां उसके प्रवर्तन का काल नो घड़ी कहा गया है वहाँ जयधवला में उसके प्रवर्तने का यह काल छह घड़ी बतलाया है। इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती में गणधर के अतिरिक्त इन्द्र और चक्रवर्ती का भी उल्लेख है, जबकि जयधवला में एकमात्र गणधर का ही निर्देश किया गया है।
घर्षमानजिन के तीर्य में ग्रन्थकर्ता
सामान्य से ग्रन्थकर्ता की प्ररूपणा में गणधर की अनेक विशेषताओं के उल्लेख के बाद 'संपहि वड्ढमाणतित्थगंथकत्तारो वृच्चदें सूचनापूर्वक धवला में यह गाथा कही गयी है
पंचेव अत्यिकाया छज्जीवणिकाया महव्वयापंच ।
अट्ठ य पवयणमादा सहेउओ बंध-मोक्खो य॥ इस माथा को प्रस्तुत कर 'को होदि' सौधर्म इन्द्र के इस प्रश्न से जिसे सन्देह उत्पन्न हुआ है तथा जो पांच-पाँच सौ शिष्यों से सहित अपने तीन भाईयों से वेष्टित रहा है वह गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण जब इन्द्र के साथ समवसरण के भीतर प्रविष्ट हुआ तब वहीं मानस्तम्भ के देखते ही उसका सारा अभिमान नष्ट हो गया। परिणामस्वरूप उसकी आत्मशद्धि उत्तरोत्तर बढ़ती गयी जिससे असंख्यात भवों में उपार्जित उसका गुरुतर कर्म नष्ट हो गया। उसने तीन प्रदक्षिणा देते हुए जिनेन्द्र की वन्दना की और संयम को ग्रहण कर लिया। तब उसके विशुद्धि के बल से अन्तर्महर्त में ही उसमें गणधर के समस्त लक्षण प्रकट हो गये। उसने जिन भगवान् के मुख से निकले हुए बीजपदों के रहस्य को जान लिया। इस प्रकार श्रावणमास के कृष्णपक्ष में युग के आदिभूत प्रतिपदा के दिन उसने आचारादि बारह अंगों और सामायिक-चतुविंशति आदि चौदह प्रकीर्णकों रूप अंगबाह्यों की रचना कर दी। इस भाँति इन्द्रभूति भट्टारक वर्धमान जिन के तीर्थ में ग्रन्थकर्ता हुए।'
१. पूर्वोक्त स्वयम्भूस्तोत्र (६६) में भी प्रकृत दिव्यवाणी को अमृतस्वरूप ही निर्दिष्ट किया
गया है। २. धवला पु० ६, पृ० १२७-२८ ३. धवला पु० ६, पृ० १२६-३०
४६६ / बनण्डागम-परिवोला
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