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________________ उत्तरोत्तरतन्त्रकर्ता धवला में यहाँ उत्तरोत्तरतन्त्रकर्ता की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में जो श्रुतावतार की चर्चा की गयी है वह लगभग उसी प्रकार की है जिस प्रकार इसके पूर्व जीवस्थान-खण्ड के अवतार के प्रसंग में की जा चुकी है। विशेषता यहाँ मात्र इतनी है कि तीर्थंकर महावीर के मुक्त होने पर जो केवली, श्रुतकेवली और अंग-पूर्वधरों की परम्परा चलती आयी है उसकी प्ररूपणा के प्रसंग में यहाँ उनके काल का भी पृथक्-पृथक् उल्लेख है जो कुल मिलाकर ६८३ वर्ष होता है।' शक नरेन्द्र का काल उपर्युक्त ६८३ वर्षों में ७७ वर्ष व ७ मास (शक राजा का काल) के कम कर देने पर ६०५ वर्ष व ५ मास शेष रहते हैं। वीर जिनेन्द्र के निर्वाण को प्राप्त होने के दिन से यह शक राजा के काल का प्रारम्भ है । ___ इस विषय में यहाँ दो अन्य मतों का भी उल्लेख किया गया है। प्रथम मत के अनुसार वीरनिर्वाण के पश्चात् १४७६३ वर्षों के बीतने पर शक नृप उत्पन्न हुआ। दूसरे मत के अनुसार वह वीर-निर्वाण से ७६६५ वर्ष और ५ मास के बीतने पर उत्पन्न हुआ। उपर्युक्त तीनों मतों की पुष्टि वहां तीन गाथाओं को उद्धत करते हुए की गयी है। तिलोयपण्णत्ती में भी शक नप की उत्पत्ति के विषय में विभिन्न मत पाये जाते हैं । यथा(१) वह वीरनिर्वाण के पश्चात् ४६१ वर्षों के बीतने पर उत्पन्न हुआ। (गा० ४-१४६७) (२) वह वीरनिर्वाण के पश्चात् १७८५ वर्ष और ५ मास के बीतने पर उत्पन्न हुआ। (गा० ४-१४६७) (३) वह वीरनिर्वाण के पश्चात् १४७६३ वर्षों के बीतने पर उत्पन्न हुआ। (गा० ४-१४६८) (४) वह वीरनिर्वाण के पश्चात् ६०५ वर्ष और ५ मास के बीतने पर उत्पन्न हुआ। (गा० ४-१४६६) इनमें प्रथम मत धवला से सर्वथा भिन्न है। दूसरे मत के अनुसार धवला में निर्दिष्ट ७६६५ वर्षों की अपेक्षा यहाँ १७८५ वर्ष हैं। शेष दो मत दोनों ग्रन्थों में समान हैं। इन मतभेदों के विषय में धवलाकार ने इतना मात्र कहा है कि इन तीन में कोई एक होना चाहिए, तीनों उपदेश सत्य नहीं हो सकते, क्योंकि उनमें परस्पर विरोध है। इसलिए जानकर कहना चाहिए (पु० ६, पृ० १३१-३३)। पूर्वश्रुत से सम्बन्ध __इस प्रकार कुछ प्रासंगिक चर्चा के पश्चात् प्रकृत की प्ररूपणा करते हुए धवला में कहा गया है कि लोहार्य के स्वर्गस्थ हो जाने पर आचारांगरूप सूर्य अस्त हो गया। भरत क्षेत्र में बारह अंगों के लुप्त हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वो के एकदेशभूत पेज्जदोस और महा १. धवला पु० ६, पृ० १३४-२३१ तथा पु० १, पृ० ७२-१३० २. धवला पु० ६, पृ० १३०-३१ षट्सण्डागम पर टीकाएँ । ४६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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