________________
कम्मपडिपाहुड आदि के धारक रह गये। इस प्रकार प्रमाणीभूत महर्षियों की परम्परारूप प्रणाली से आकर महाकर्मप्रकृतिप्राभृतरूप अमृत-जल का प्रवाह धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ। उन्होंने भी सम्पूर्ण महाकर्मप्रकृतिप्राभूत को गिरिनगर की चन्द्रगुफा में भूतबलि और पष्पदन्त को समर्पित कर दिया । भूतबलि भट्टारक ने श्रुत विच्छेद के भय से महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का उपसंहार कर छह खण्ड किये। इस प्रकार प्रमाणीभूत आचार्यपरम्परा से आने के कारण प्रकृत षट्खण्डागम ग्रन्थ प्रत्यक्ष व अनुमान के विरोध से रहित है, अतः प्रमाण है।
आगे सूत्रकार ने प्रकृत ग्रन्थ का सम्बन्ध अंग-पूर्वश्रुत में किससे किस प्रकार रहा है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि अग्रायणीय पूर्वगत चौदह 'वस्तु' नामक अधिकारों में पांचा 'चयनलब्धि' नाम का अधिकार है। उसके अन्तर्गत बीस प्राभृतों में चौथा महाकर्मप्रकृतिप्राभूत है। उसमें ये चौबीस अनुयोगद्वार हैं-(१) कृति, (२) वेदना, (३) स्पर्श, (४) कर्म, (५) प्रकृति, (६) बन्धन, (७) निबन्धन, (८) प्रक्रम, (६) उपक्रम, (१०) उदय, (११) मोक्ष, (१२) संक्रम (१३) लेश्या, (१४) लेश्याकर्म, (१५) लेश्यापरिणाम, (१६) सात-असात, (१७) दीर्घ-हस्व, (१८) भवधारणीय, (१९) पुद्गलात्त, (२०) निधत्त-अनिधत्त, (२१) निकाचित-अनिकाचित, (२२) कर्मस्थिति, (२३) पश्चिमस्कन्ध और (२४) अल्पबहुत्व ।-सूत्र ४५ (पु०९)
ग्रन्थावतार
इस सूत्र की व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि सब ग्रन्थों का अवतार उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय के भेद से चार प्रकार का होता है। इन सबकी यथाक्रम से प्ररूपणा यहाँ उसी प्रकार है, जिस प्रकार इसके पूर्व जीवस्थान के अवतार के प्रसंग में की जा चुकी है।' विशेषता यहां यह रही है कि उपक्रम के आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार इन पाँच भेदों में जो तीसरा भेद प्रमाण है उसके यहाँ नामप्रमाण, स्थापनाप्रमाण, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण ये छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं, जबकि जीवस्थान के प्रसंग में प्रथमतः वहाँ ये पांच भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण, भावप्रमाण और नयप्रमाण । वैसे वहाँ भी विकल्प रूप में उपयुक्त छह भेदों का निर्देश है।
प्रसंगवश जीवस्थान में यह शंका भी उठायी गयी है कि नयों के प्रमाणरूपता कैसे सम्भव है। धवलाकार ने इसके उत्तर में कहा है कि नय चूंकि प्रमाण के कार्य हैं, इसलिए उनके उपचार से प्रमाण होने में कोई विरोध नहीं है।
अवतार के तीसरे भेदभूत अनुगम का स्वरूप स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जहां या जिसके द्वारा वक्तव्य-वर्णनीय विषय-की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम अनुगम है। जम्हि जेण वा वत्तव्वं परुविज्जदि सो अणुगमो। इस लक्षण के अनुसार उससे अधिकार नामक अनुयोगद्वारों के अन्तर्गत अवान्तर अधिकारों को ग्रहण किया गया है। जैसे'वेदना' अधिकार के अन्तर्गत पदमीमांसा आदि ।
आगे विकल्प के रूप में यह भी कहा गया है-अथवा अनुगम्यन्ते जीवादयः पदार्थाः
१. धवला पु० १, पृ०७२-१३० और पु० ६, पृ० १३४-२३१ २. धवला पु० १, पृ० ८०-८२ व पु० ६, पृ० १३८-४० ३. पु० १०, पृ० १८, सूत्र १ तथा पु० ११, पृ० १, सूत्र १-२ व ७३-७५ ४६८ / पट्खण्डागम-परिशालन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org