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________________ चार्य-विरचित तत्त्वार्थसूत्र के नाम से उद्धृत किया है।' यहाँ धवलाकार ने सुप्रसिद्ध 'तत्त्वार्थसूत्र' के उस सूत्र को ग्रन्थकर्ता 'गृद्धपिच्छाचार्य' के नाम के साथ उद्धृत किया है। इससे निश्चित है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता गृद्धपिच्छाचार्य रहे हैं। उनके उमास्वाति और उमास्वामी ये नामान्तर भी प्रचलित हैं। शिलालेखों में उन्हें कुन्दकुन्दाचार्य की वंश-परम्परा का कहा गया है । शिलालेख के अनुसार समस्त पदार्थों के वेत्ता उन मुनीन्द्र ने जिनोपदिष्ट पदार्थसमूह को सूत्र के रूप में निबद्ध किया है जो तत्त्वार्थ', तत्त्वार्थशास्त्र व तत्त्वार्थसत्र इन नामों से प्रसिद्ध हुआ। श्वेता० सम्प्रदाय में उसका उल्लेख 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' के नाम से हुआ है। वे योगीन्द्र प्राणियों के संरक्षण में सावधान रहते हुए गद्ध (गीध) के पंखों को धारण करते थे, इसीलिए विद्वज्जन उन्हें तभी से 'गद्धपिच्छाचार्य' कहने लगे थे । यथा अभूवुमास्वातिमुनिः पवित्र वंशे तदीये सकलार्थवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुंगवेन ॥ स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी फिल गृध्र पिच्छान् । तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छम् ॥ जैसाकि ऊपर शिलालेख में भी निर्देश किया गया है, उनकी इस महत्त्वपूर्ण कृति में आगमग्रन्थों में बिखरे हुए मोक्षोपयोगी जीवादि तत्त्वों का अतिशय कुशलता के साथ संक्षेप में संग्रह कर लिया गया है व आवश्यक कोई तत्त्व छूटा नहीं है। ___ आचार्य गृद्धपिच्छ कब हुए, उनके दीक्षागुरु व विद्यागुरु कौन रहे हैं और प्रकृत तत्त्वार्थसूत्र के अतिरिक्त अन्य भी कोई कृति उनकी रही है; इस विषय में कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं है। १. तह गिद्धपिच्छाइरियप्पयासि सितिच्चत्थसुत्ते वि "वर्तना-परिणाम-त्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य" इदि दव्वकालो परूविदो।-धवला, पु० ४, पृ० ३१६ २. आ० पूज्यपाद-विरचित तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि), भट्टाकलंकदेव-विरचित तत्त्वार्थ वार्तिक और आ० विद्यानन्द-विरचित तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 'तत्त्वार्थ' के नाम पर ही लिखी गयी हैं। ३. आ० विद्यानन्द ने उसका उल्लेख 'तत्त्वार्थशास्त्र' के नाम से भी किया है। देखिए आप्त परीक्षा-श्लोक १२३-२४ । ४. धवलाकार ने पूर्वोक्त सूत्र को 'तत्त्वार्थसूत्र' नाम से उद्धृत किया है। ५. जैन शिलालेखसंग्रह प्र० भाग, नं० १०८, पृ० २१०-११ ६. श्वेता० सम्प्रदाय में तत्त्वार्थाधिगमभाष्य को स्वोपज्ञ माना जाता है। वहाँ उसकी प्रशस्ति में वाचक उमास्वाति को वाचक मुख्य शिवश्री के प्रशिष्य और एकादशांगवित् घोषनन्दी का शिष्य कहा गया है । वाचना से-विद्याध्ययन की अपेक्षा-वे महावाचक क्षमण मुण्डपार के शिष्यस्वरूप मूल नामक वाचकाचार्य के शिष्य रहे हैं। उनका जन्म न्यग्रोधिका में हआ था, पिता का नाम स्वाति और माता का नाम वात्सी था। गोत्र उनका कौभीषणी था (शेष पृ० ६५८ पर देखें) ग्रन्थकारोल्लेख / ६५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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