SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 534
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नहीं है। कथंचित् वह युग्म है, क्योंकि ज्ञानावरण में द्रव्य का सम होना सम्भव है। प्रसंगवश यहाँ युग्म आदि का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि युग्म और समय समानार्थक शब्द हैं । युग्म कृतयुग्म और बादरयुग्म के भेद से दो प्रकार का है। जो संख्या चार (४) से अपहृत हो जाती है उसे कृतयुग्म कहा जाता है; जैसे १६ : ४ ==४ । जिस संख्या को चार से अपहृत करने पर (२) अंक शेष रहते हैं वह बादरयुग्म कहलाती है; जैसे १४ : ४=३, शेष २। जिस संख्या में चार से अपहृत करने पर एक (१) शेष रहता है उसका नाम कलिओज है। जैसे १३:४=३; शेष १ । जिस संख्या को चार से अपहृत करने पर तीन अंक शेष रहते हैं उसे तेजोज कहते हैं; जैसे १५ : ४=३, शेष ३ । __ कथंचित् वह ओज है, क्योंकि कहीं पर वह ज्ञानावरणद्रव्य विषम संख्या में देखा जाता है। कथंचित् वह ओम है, क्योंकि कभी प्रदेशों का अपचय देखा जाता है । कथंचित् वह विशिष्ट है, क्योंकि कभी व्यय की अपेक्षा आय अधिक देखी जाती है। कथंचित् वह नोम-नोविशिष्ट है, क्योंकि प्रत्येक पदावयव की विवक्षा में वृद्धि-हानि का अभाव सम्भव है। इस प्रकार से धवला में प्रथम सूत्र की प्ररूपणा की गयी है (पु० १०, पृ० २२-२३)। इसी पद्धति से आगे धवला में दूसरे से चौदहवें सूत्र तक की प्ररूपणा है। स्वामित्व के प्रसंग में सूत्रकार ने उत्कृष्ट पदरूप और जघन्यपदरूप दो ही प्रकार के स्वामित्व का उल्लेख किया है। सर्वप्रथम द्रव्य की अपेक्षा उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए निष्कर्ष के रूप में कहा है कि वह गुणित कर्माशिक जीव के सातवीं पृथ्वी में अवस्थित रहने पर उस भव के अन्तिम समय में होती है । गुणितकौशिक की अनेक विशेषताओं का भी वहाँ २६ (७ से ३२) सूत्रों में विवेचन है । उन सब विशेषताओं को संक्षेप में 'मूलग्रन्थगत-विषय-परिचय' में दिखाया जा चुका है। इस प्रसंग में एक सूत्र (४,२,४,२८) में यह निर्देश है कि उपर्युक्त प्रकार से परिभ्रमण करता हुआ जीवित के थोड़ा शेष रह जाने पर योगमध्य के ऊपर अन्तर्मुहूर्त रहा है। . इसकी व्याख्या में धवला में कहा गया है कि द्वीन्द्रिय पर्याप्त के सर्वजघन्य परिणाम योगस्थान को आदि करके संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के उत्कृष्ट योगस्थान तक सब योगस्थानों को ग्रहण करके उन्हें पंक्ति के आकार से स्थापित करने पर उनका आयाम श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र होता है। उनमें सर्वजघत्य परिणाम योगस्थान को आदि करके आगे के श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थान चार समय के योग्य हैं । उससे आगे के श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान पाँच समय के योग्य होते हैं। इसी प्रकार आगे के पृथक्-पृथक् छह, सात और आठ समय योग्य योगस्थान श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र हैं। आगे के यथाक्रम से सात, छह, पांच, चार, तीन और दो समय योग्य योगस्थान श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र हैं। उनका अल्पबहुत्व दिखलाते हुए धवला में कहा गया है कि योगस्थानों का विशेषणभूत काल अपनी संख्या की अपेक्षा यव के आकार है, क्योंकि वह यव के समान मध्य में स्थूल होकर दोनों पार्श्व भागों में क्रम से हानि को प्राप्त हुआ है । इन चार-पाँच आदि समयों से विशेषित योगस्थान भी ग्यारह प्रकार का है । यवाकार होने से योग को ही यव कहा गया है । योग का मध्य आठ समय योग्य योगस्थान है। उसके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल रहा है । यह योगयवमध्य संज्ञा जीवमध्य की है। आगे यह सब स्पष्ट करने के लिए धवला में योगस्थानों में स्थित जीवों को आधार करके ४८० | षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy