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________________ योगयवमध्य के अधस्तन अध्वान से उपरिम की विशेष अधिकता के प्रतिपादनार्थ प्ररूपणा, प्रेमाणे, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहत्व इन छह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की गयी है। अन्त में निष्कर्ष रूप में कहा गया है कि जीवयवमध्य के अधस्तन अध्वान से उपरिम अध्वान के विशेष अधिक होने से यहाँ अन्तर्मुहूर्त काल रहना सम्भव नहीं है, इसलिए कालयवमध्य के ऊपर अन्तर्मुहर्त काल रहा, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए (पु० १०, पृ० ५७-९८)। सूत्र (४,२,४,२९) में निर्दिष्ट 'अन्तिमजीवगुणहानिस्थानान्तर में आवली के असंख्यातवें भाग रहा' की व्याख्या के बाद धवला में अन्त में कहा गया है कि नारकभव को विवक्षित कर इन सूत्रों की प्ररूपणा की गयी है। उनके देशामर्शक होने से गुणितकौशिक के सभी भवों में उनकी पृथक-पृथक प्ररूपणा कर लेना चाहिए। कारण यह कि एक भव में यवमध्य के ऊपर अन्तर्मुहर्त और अन्तिम गुणहानि में आवली के असंख्यातवें भाग ही नहीं रहता है, जहां जितना काल सम्भव है वहां पर उतने काल अवस्थान की प्ररूपणा की गयी है (पु० १०, पृ० १८-१०७)। नारकभव के अन्तिम समय में वर्तमानगुणितकांशिक के द्रव्य की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट वेदना किस प्रकार से सम्भव है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि इस प्रकार इस विधान से संचित उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय द्रव्य का उपसंहार कहा जाता है। कर्मस्थिति के प्रथम समय से लेकर उसके अन्तिम समय तक बांधे गये सब समयप्रबद्धों की अथवा प्रत्येक के प्रमाण की परीक्षा का नाम उपसंहार है। उसमें तीन अनुयोगद्वार हैं-- संचयानुगम, भागहारप्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व । इनके आश्रय से क्रमशः ज्ञानावरणीय के उत्कृष्ट द्रव्य की यहाँ विस्तार से प्ररूपणा है (पु० १०, पृ० १०६-२१०)। ज्ञानावरणीय की द्रव्य की अपेक्षा अनुत्कृष्ट वेदना किसके होती है, इसके प्रसंग में सूत्र में संक्षेप से यह कह दिया है कि उपर्युक्त उत्कृष्ट वेदना से भिन्न उसकी अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना है (सूत्र ४,२,४,३३) । इसकी व्याख्या में कहा गया है कि अपकर्षण के वश उसके पूर्वोक्त उत्कृष्ट द्रव्य में से एक परमाणु के हीन होने पर उस अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना का उत्कृष्ट विकल्प होता है। आगे उसमें किस क्रम से हानि के होने पर उस अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना के अन्य-अन्य विकल्प होते हैं, इसका विचार किया गया है। ___ इसी प्रसंग में वहाँ गुणितकौशिक, गुणितघोलमान, क्षपितघोलमान और क्षपितकौशिक जीवों के आश्रय से पुनरुक्त स्थानों का भी निरूपण है । त्रसजीव प्रायोग्य स्थानों के जीवसमुदाहार के कथन के प्रसंग में प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन छह अनुयोगद्वारों का भी निर्देश है और उनके आश्रय से जीवसमुदाहार की प्ररूपणा भी की गयी है (पु० १०, पृ० २१०-२४)। छह कर्मों की द्रव्यवेदना सूत्रकार ने आगे के सूत्र में यह सूचना कर दी है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणीय के उत्कृष्टअनुत्कृष्ट द्रव्य की प्ररूपणा की गयी है उसी प्रकार आयु को छोड़कर दर्शनावरणीय आदि शेष छह कर्मों के भी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट द्रव्य की प्ररूपणा करना चाहिए । (सूत्र ४,२,४,३४) इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि ज्ञानावरणीय की प्ररूपणा से उन छह कर्मों बदमागम पर टीकाएँ / ४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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