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की द्रव्यवेदना को प्ररूपणा में इतनी विशेषता है कि मोहनीय के प्रसंग में उस गुणितकांशिक जीव को त्रसस्थिति से हीन चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम काल तक तथा नाम व गोत्र के प्रसंग में उसे उस त्रसस्थिति से हीन बीस कोडाकोड़ी सागरोपम काल तक बादर एकेन्द्रियों में परिभ्रमण कराना चाहिए । गुणहानिशलाकाओं और अन्योन्याभ्यस्त राशियों के विशेष को भी जानना चाहिए। आयु को उत्कृष्ट द्रव्यवेदना
द्रव्य की अपेक्षा आयु कर्म की उत्कृष्ट वेदना किसके होती है, इसका स्पष्टीकरण सूत्रकार ने बारह (३५-४६) सूत्रों में किया है। जिस जीव के आयुकर्म की उत्कृष्ट द्रव्यवेदना सम्भव है, उसके सर्वप्रथम ये पांच लक्षण निर्दिष्ट किये गये हैं--(१) वह पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाला होना चाहिए, (२) वह जलचर जीवों में पूर्वकोटि प्रमाण परभविक आयु का बांधनेवाला होना चाहिए, (३) वह दीर्घआयुबन्धक काल में उसे बांधता है, (४) उसके योग्य संक्लेश से उसे बांधता है तथा (५) उत्कृष्ट योग में उसे बाँधता है।
१. उसके इन लक्षणों को स्पष्ट कर धवला में कहा है कि जिसके उत्कृष्ट आयुवेदना सम्भव है उसे पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाला इसलिए होना चाहिए कि जो जीव पूर्वकोटि के तृतीय भाग को आबाधा करके परभविक आयु बाँधते हैं उन्हीं के उत्कृष्ट बन्धककाल सम्भव है।
२. जलचरों में पूर्वकोटि प्रमाण आयु का बन्धक क्यों होना चाहिए, इस दूसरे लक्षण के सम्बन्ध में कहा गया है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणादि अन्य कर्मों का उदय, जिस भव में उन्हें बांधा जाता है, उसी भव में बन्धावलि के बीतने पर हुआ करता है उस प्रकार बांधे गये आयुकर्म का उदय उस भव में सम्भव नहीं है, उसका उदय अगले भव में ही होता है। __यहां यह शंका होती है कि पूर्वकोटि की अपेक्षा दीर्घ आयु को क्यों नहीं बंधाया गया, क्योंकि प्रथमादि गोपुच्छाओं के स्तोक होने से वहां निर्जरा कम हो सकती थी।
इसके समाधान में कहा है कि पूर्वकोटि से एक-दो समयादि से अधिक जितने भी आयु के विकल्प हैं उनमें उसका घात सम्भव नहीं है इसलिए पूर्वकोटि से अधिक आय को बांधनेवाला जीव परभविक आयु के बन्ध के बिना छह मास हीन सब भुज्यमान आयु को गला देता है। इसलिए परभविक आयु के बन्ध के समय उसके आयुद्रव्य का बहुत संचय नहीं हो पाता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि देव-नारकियों व असंख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्य-तियंचों के भुज्यमान आयु में छह मास शेष रह जाने पर ही विभाग में परभविक आयु का बन्ध हुआ करता है।'
पूर्वकोटि से नीचे की आयु को इसलिए नहीं बंधाया गया कि स्तोक आयुस्थिति की स्थूल गोपुच्छाओं के मरहट की घटिकाओं की जलधारा के समान निरन्तर गलाने पर निर्जरा अधिक होनेवाली थी।
जलचर जीवों में आयु को क्यों बंधाया गया, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा है कि विवेक का अभाव होने से वे संक्लेश से रहित होकर अधिक साता से युक्त होते हैं, इसलिए
१. पिरुवक्कमाउआ पुण छम्मासावसेसे आउअबंधपाओग्गा होति ।-धवला पु० १०, पृ०
२३४; पु० ६, पृ० १७० व उसका टिप्पण १ भी द्रष्टव्य हैं ।
४८२ / षट्सपभगम-परिशीलन
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