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________________ तत्पश्चात् सूत्रकार ने उन तेरह स्पर्शभेदों के स्वरूप और यथासम्भव उनके अवान्तरभेदों को भी स्पष्ट किया है ।' अन्त में सूत्रकार ने 'इन स्पर्शभेदों में यहाँ कौन-सा स्पर्श प्रसंगप्राप्त है, इस प्रश्न के साथ 'कर्मस्पर्श' को प्रकृत कहा है (सूत्र ५,३, ३३) । इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि यह खण्डग्रन्थ अध्यात्मविषयक है, इस अपेक्षा से यहाँ कर्मस्पर्श को प्रकृत कहा गया है । किन्तु महाकर्मप्रकृतिप्राभूत में द्रव्यस्पर्श, सर्वस्पर्श और कर्मस्पर्श ये तीन प्रकृत रहे हैं । इस पर वहां यह पूछे जाने पर कि महाकर्म प्रकृतिप्राभृत में ये तीन स्पर्श प्रकृत रहे हैं, यह कैसे जाना जाता है; धवलाकार ने कहा है कि दिगन्तरशुद्धि में द्रव्यस्पर्श की प्ररूपणा के बिना वहाँ स्पर्श अनुयोगद्वार का महत्त्व घटित नहीं होता, इसलिए उसे वहाँ प्रसंगप्राप्त कहा गया है । तत्पश्चात् यह दूसरी शंका उठायी गयी है कि यदि यहाँ कर्मस्पर्श प्रसंगप्राप्त है तो भूतबलि भगवान् ने यहाँ उस कर्मस्पर्श की प्ररूपणा शेष कर्मस्पर्शनय विभाषणता आदि पन्द्रह अनुयोगद्वारों के आश्रय से क्यों नहीं की। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि यह कुछ दोष नहीं है, क्योंकि 'स्पर्श' नाम वाले कर्मस्पर्श की उन शेष अनुयोगद्वारों के आश्रय से की जाने वाली प्ररूपणा में 'वेदना' अनुयोगद्वार में प्ररूपित अर्थ से कुछ विशेषता रहने वाली नहीं है, इसी अभिप्राय से भूतबलि भट्टारक ने यहाँ उन शेष पन्द्रह अनुयोगद्वारों के आश्रय से उसकी प्ररूपणा नहीं की है । " इस पर शंकाकार ने कहा है कि यदि ऐसा है तो अपुनरुक्त द्रव्यस्पर्श और सर्वस्पर्श की प्ररूपणा यहाँ क्यों नहीं की गयी है । इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि अध्यात्मविद्या के प्रकृत होने पर अनेक नयों की विषयभूत अनध्यात्मविद्या की प्ररूपणा घटित नहीं होती है । इस प्रकार से धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त उन पन्द्रह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा न करने के विषय में उद्भावित दोष का निराकरण कर दिया है । (२) आगे इसी वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'कर्म' अनुयोगद्वार को प्रारम्भ करते हुए सूत्रकार ने उसकी प्ररूपणा में कर्मनिक्षेप व कर्मनयदिभाषणता आदि वैसे ही १६ अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा है । तत्पश्चात् अवसरप्राप्त कर्मनिक्षेप के प्रसंग में उसके इन दस भेदों का निर्देश किया है— नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, आधाकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म । आगे यथाक्रम से इन कर्मों के स्वरूप को प्रकट करते हुए अन्त में उनमें से समवदान कर्म को प्रसंगप्राप्त कहा गया है । १. धवला, पृ० ८ - ३५; सूत्र - ३२ २. पूर्वोक्त प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका और 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में जो अधिकांश सूत्रों की पुनरुक्ति हुई है, वह यदि न होती तो इसी प्रकार का समाधान वहाँ भी किया जा सकता था । ३. धवला, पु० १३, पृ० ३६ ४. सूत्र ५, ४, ३१ ( पु० १३, पृ० ९० ) ७०४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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