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________________ आरोढुं मुणि-वणिया महग्घसोलंग-रयणपडिपुण्णं । जह तं निव्वाणपुरं सिग्घभविग्घेण पावंति ॥६०॥-ध्यानशतक यहां यह ध्यान देने योग्य है कि ध्यानशतक के अनुसार जो ‘णाणमयकण्णधारं' विशेषण संसार-सागर से पार कराने वाली चारित्ररूपी विशाल नौका का रहा है, वह ऊपर निर्दिष्ट धवलागत पाठ के अनुसार संसार-सागर का विशेषण बन गया है। साथ ही 'चारित्रमय महा. पोत' भी उसी संसार-सागर का विशेषण बन गया है । इस प्रकार का उपर्युक्त गाथागत वह असंगत पाठ धवलाकार के द्वारा कभी प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। वह सम्भवतः किसी प्रतिलेखक की असावधानी से हुआ है। ध्यानशतक से विशेषता (१) ध्यानशतक में तत्त्वार्थसूत्र और स्थानांग आदि के समान ध्यान के ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल । वहाँ यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इनमें अन्त के दो ध्यान निर्वाण के साधन हैं तथा आर्त व रौद्र ये दो ध्यान भी संसार के कारण हैं। परन्तु धवला में ध्यान के ये केवल दो ही भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-धर्मध्यान और शक्लध्यान । हेमचन्द्र सरि-विरचित योगशास्त्र में भी ध्यान के ये ही दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं।' (२) धवलाकार ने स्पष्ट रूप में तो धर्मध्यान के स्वामियों का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु उस प्रसंग में यह शंका धवला में उठायी गयी है कि धर्मध्यान सकषाय जीवों के होता है, यह कैसे जाना जाता है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह 'असंयतसम्यग्दष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरणसंयत, अनिवृत्तिकरणसंयत और सक्षमसाम्परायिक क्षपक व उपशामकों में धर्मध्यान की प्रवृत्ति होती है' इस जिनदेव के उपदेश से जाना जाता है। इस शंका-समाधान से यह स्पष्ट है कि धवलाकार के अभिमतानुसार धर्मध्यान के स्वामी असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक और क्षपक तक हैं। ध्यानशतक में इस प्रसंग में यह कहा गया है कि सब प्रमादों से रहित हुए मुनिजन तथा क्षीणमोह और उपशान्तमोह ये धर्मध्यान के ध्याता निर्दिष्ट किये गये हैं। इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि ध्यानशतक के कर्ता असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत को धर्मध्यान का अधिकारी स्वीकार नहीं करते हैं। (३) धवला में पूर्व दो शुक्लध्यानों के प्रसंग में यह शंका उठायी गयी है कि एक वितर्क १. त०स० ६, २८-२८ व स्थानांगसूत्र २४७, पृ० १८७ तथा ध्या० श०, गाथा ४ २. झाणं दुविहं-धम्मज्झाणं सुवकज्झाणमिदि।-धवला पु० १३, पृ० ७० ३. मुहर्तान्तरमनःस्थैर्य ध्यानं छद्मस्थयोगिनाम् । धम्यं शुक्लं च तद् द्वेधा योगरोधस्त्वयोगिनाम् ।।-यो० शा० ४-११५ ४. धवला पु० १३, ७४ ५. ध्यानशतक, गा० ६३ ६३२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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