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________________ इस प्रकार उपर्युक्त 'तिलोयपण्णत्तिसुत्त' के नाम से उद्धृत वाक्य तिलोयपण्णत्ती के उपलब्ध संस्करण में नहीं पाया जाता है । (२) धवलाकार ने प्रतरसमुद्घातगत केवली के क्षेत्र के साथ संगति बैठाने के लिए लोक को दक्षिण-उत्तर में सात राजु प्रमाण बाहल्यवाला आयतचतुरस्र सिद्ध किया है । वर्तमान तिलोय पण्णत्ती (१-१४६ ) में लोक का प्रमाण इसी प्रकार कहा गया है । यदि धवलाकार के समक्ष तिलोयपण्णत्ती में निर्दिष्ट लोक का यह प्रमाण रहा होता तो उन्हें विस्तारपूर्वक गणितप्रक्रिया के आधार से उसे सिद्ध न करना पड़ता । प्रमाण के रूप में वे उसी तिलोयपण्णत्ती के प्रसंग को प्रस्तुत कर सकते थे । इससे यही सिद्ध होता है कि धवलाकार के समक्ष तिलोयपण्णत्ती में इस प्रकार का प्रसंग नहीं रहा । इसीलिए उन्हें यह कहना पड़ा ख - एसा क - एसो अत्थो जइवि पुव्वाइरियसंपदायविरुद्धो तो वि तंत-जुत्तिबलेण अम्हहिं परुविदो । - पु० ३, पृ० ३८ तप्पा ओग्गसंखेज्जरूवाहिय जंबूदीव - छेदणय सहिददीव-साथ रख्वमेत्त रज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविहीण अण्णाइरिओवदेसपरंपराणुसारिणी, केवलं तु तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुसारा जोदिसियदेवभागहारपदुप्पा इयत्तावलंविजुत्तिवलेण पयदगच्छसाहणट्टमम्हेहि परूविदा, प्रतिनियितसूत्रावष्टम्भबलविजं भितगुणप्रतिपन्न प्रतिबद्धासंख्येयावलिकावहारकालोपदेशवत् आयतचतुरस्रलोकसंस्थानोपदेशवद् वा । —धवला पु० ४, पृ० १५७ (३) तिलोयपण्णत्ती में कुछ ऐसा गद्य-भाग है जो धवला में प्रसंगप्राप्त उस गद्यभाग से शब्दश: समान है । यथा--- कतिलोयपण्णत्ती के प्रथम महाधिकार में गाथा २६२ में यह प्रतिज्ञा की गयी है कि हम वातवलय से रोके गये क्षेत्र के घनफल को, आठों पृथिवियों के घनफल को तथा आकाश के प्रमाण को कहते हैं । तदनुसार आगे वहाँ प्रथमतः 'संपहि लोगपरंतद्विदवाववलयरुद्धखेत्ताणं आणण विधाणं उच्चदे' इस सूचना के साथ लोक के पर्यन्त भाग में स्थित वायुओं के घनफल को निकाला गया है। उससे सम्बद्ध गद्यभाग वहाँ इस प्रकार है “लोगस्स तले तिष्णिवादाणं बहलं वादेक्कस्स य वीस-सहस्सा य जोयणमेत्तं । तं सब्वमेय कदे सट्ठिजोयणसहस्सबाहल्लं जगपदरं होदि । एवं सव्वमेत्थ मेलाविदे चउवीस-कोडिसमहियसहस्सकोडीओ एगूणवीसलवखतेसीदिसहस्सचउसदसत्तासीदिजोयणाणं णवसहस्ससत्तसयसरूवाहियलक्खाए अवहिदेगभागबाहल्लं जगपदरं होदि ।' १०२४१६८३४८७ १०६७६० आगे कृत प्रतिज्ञा के अनुसार आठ पृथिवियों के नीचे वायु द्वारा रोके गये क्षेत्र के और आठ पृथिवियों के भी घनफल को प्रकट किया गया है । " धवला में प्रतरसमुद्घातगत केवली के प्रसंग में 'संपहि लोगपरंतट्टिदवादवलयरुद्ध खेत्ताण १. ति०प०, भा० १, पृ० ४३-४६ २. ति० प०, भा० १, पृ० ४६-४८ ६२० / षट्खण्डागम-परिशीलन דיי Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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