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इस प्रकार सामान्य से निक्षेप का स्वरूप दिखाकर क्षेत्र के विषय में चार प्रकार के निक्षेप को योजित किया गया है, तदनुसार अनेक प्रकार के क्षेत्र में से यहाँ नोआगम द्रव्यक्षेत्र को अधिकारप्राप्त कहा गया है। नोआगम द्रव्यक्षेत्र का अर्थ आकाश है।।
इसी सिलसिले में धवलाकार ने क्षेत्रविषयक विचार तत्त्वार्थसूत्र (१-७) में निर्दिष्ट निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान इन छह अनुयोगद्वारों के आश्रय से भी संक्षेप में किया है । तदनुसार धवला में निर्देश के रूप में क्षेत्र के आकाश, गगन, देवपथ, गुह्यकाचरित, अवगाहन लक्षण, आधेय, व्यापक, आधार और भूमि इन समानार्थक नामों का निर्देश किया गया है। स्वामित्व के प्रसंग में क्षेत्र किसका है, इस भंग को शून्य कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है कि क्षेत्र का स्वामी कोई नहीं है। साधन को लक्ष्य में रखकर उसका साधन या कारण पारिणामिक भाव निर्दिष्ट किया गया है, जिसका अभिप्राय यह है कि क्षेत्र कारण अन्य कोई नहीं है-वह स्वभावतः ही है। वह क्षेत्र कहाँ है, इस प्रकार अधिकरण के प्रसंग में कहा गया है कि वह अपने आप में रहता है, अन्य आधार उसका कोई नहीं है। जिस प्रकार स्तम्भ और सार में भेद न होने से परस्पर आधार-आधेयभाव है. उसी प्रकार क्षेत्र (आकाश) को भी स्वयं आधार और आधेय समझना चाहिए।
__ स्थिति या काल के प्रसंग में उसे अनादि-अपर्यवसित कहा गया है। विधान को अधिकृत कर उसे द्रव्याथिक नय से एक प्रकार का व प्रयोजनवश लोकाकाश और अलोकाकाश के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। अथवा देश के भेद से वह तीन प्रकार का है-अधोलोक, ऊर्ध्वलोक और मध्यलोक। सुमेरु के मूल से नीचे के भाग को अधोलोक, उसकी चूलिका से ऊपर के भाग को ऊर्ध्वलोक और सुमेरु के प्रमाण एक लाख योजन ऊँचे भाग को मध्यलोक कहा जाता है। ___ आगे 'क्षेत्रानुगम' की सार्थकता को दिखलाते हुए जो वस्तुएँ जिस स्वरूप में अवस्थित हैं उनके उसी प्रकार के अवबोध को अनुगम कहा गया है। इस प्रकार का जो क्षेत्र का अनुगम है उसे क्षेत्रानुगम जानना चाहिए।' ओघ की अपेक्षा क्षेत्र-विचार
इस प्रकार धवला में प्रसंगप्राप्त क्षेत्र का स्वरूपादि विषयक विचार करके तत्पश्चात् सूत्र (१,३,२) में जो ओघ की अपेक्षा मिथ्यादृष्टियों का सर्वलोक क्षेत्र कहा गया है उसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि 'लोक' से यहाँ सात राजुओं के धन की विवक्षा रही है। इस अभिप्राय की पुष्टि में धवलाकार ने गाथा को उद्धत करते हुए कहा है कि यहाँ क्षेत्रप्रमाण के अधिकार में इस गाथा में निर्दिष्ट लोक को ग्रहण किया जाता है
पल्लो सायर सूई पदरो य घणंगुलो य जगसेठी । लोयपदरो य लोगो अट्ठ दु माणा मुणेयव्वा ॥'
१. धवला पु०४, में पृ०२-६ हैं। २. यह गाथा मूलाचार (१२-८५) में उसी रूप में उपलब्ध होती है। त्रिलोकसार में (६२)
'अट्ठ दु माणा मुणेयव्वा' के स्थान में 'उवमपमा एवमट्ठविहा' पाठभेद है। तिलोयपण्णत्ती गा० १-६ में भी इन मानभेदों का निर्देश किया गया है।
४०२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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