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________________ गति में जाते समय किया गया है।' गति-इच्छित गति से अन्य गति में जाने का नाम गति है। इसका उपयोग केवल तियंचों और मनुष्यों के लिए अपनी-अपनी गति से अन्य गति में जाते समय किया गया है।' . उर्तितच्युतसमान-- 'उर्तित' का अर्थ मूलाचारवृत्ति के अनुसार पूर्व में निर्दिष्ट किया जा चुका है । सौधर्म इन्द्र आदि देवों का जो अपनी सम्पत्ति से वियोग होता है उसका नाम चयन है। इसका उपयोग भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ऐशान कल्पवासी देवों के लिए उस गति से निकलकर अन्यत्र उत्पन्न होने के समय किया गया है। च्युतसमान-'चयन' का अर्थ ऊपर निर्दिष्ट किया जा चुका है। इसका उपयोग केवल सनत्कुमारादि ऊपर के विमानवासी देवों के लिए उस पर्याय को छोड़कर अन्यत्र उत्पन्न होते समय किया गया है। अनेक शब्दों का उपयोग कहीं-कहीं पर प्रशंसा के रूप में प्रायः एक ही अभिप्राय के पोषक अनेक शब्दों का उपयोग किया गया है । जैसे १. तीर्थकर नामकर्म के उदय से जीव अर्चनीय, पूजनीय, वन्दनीय, नमस्करणीय, नेता और धर्मतीर्थ का कर्ता होता है । सामान्य से समानार्थक होने पर धवलाकार ने उनका पृथक्पृथक् विशिष्ट अर्थ भी किया है। २. कोई अन्तकृत् होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, और सब दुःखों के अन्त को प्राप्त होते हैं । धवलाकार ने 'बुद्धयन्ते', 'मुच्चंति', 'परिनिर्वान्ति' और 'सर्वदुःखानामन्तं परिविजानन्ति' इन पदों की सफलता क्रम से कपिल, नैयायिक-वैशेषिक-सांख्य-मीमांसक, तार्किक और पुनः तार्किक इनके अभिमत के निराकरण में प्रकट को है। शब्दों की पुनरावृत्ति सूत्रों में कहीं-कहीं एक ही शब्द का दो-तीन बार प्रयोग किया गया है। जैसे १. देखिए तिर्यचों के लिए सूत्र १,६-६,१०१ व आगे १०७, ११२,११५,११८,१३१,१३४ १३८; मनुष्यों के लिए सूत्र १,६-६,१४१ व आगे १४७,१५०,१६३,१६६,१७० २. इच्छिदगदीदो अण्णगदिगमणं गदी णाम ।--धवला पृ० १३, प०३४६ ३. देखिए तिर्यचों के लिए सूत्र १,६-६,१०१-२६ व १३१-४० ४. सोहम्मिंदादिदेवाणं सगसंपयादो विरहो चयणं णाम ।-धवला पु० १३, पृ० १४६-४७ ५. देखिए सूत्र १,६-६, १७३ व आगे १८५,१६० ६. देखिए सूत्र १,६-६,१६१, १६२,१६८ ७. सूत्र ३-४२ व उसकी धवला टीका द्रष्टव्य है। --पु० ८, पृ० ६१-६२ ८. देखिए सूत्र १,६-६,२१६ व आगे २२०,२२६,२३३,२४०,२४३ (पु. ६) ६. धवला पु० ६, पृ० ४६०-६१ ४२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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