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________________ ऋषमदेव केशरीमल श्वे० संस्था रतलाम से प्रकाशित 'जीवसमास' ग्रन्थ में मिथ्यादष्टि आदि चौदह गुणस्थानों का उल्लेख 'जीवसमास' नाम से किया गया है (गाथा ८-६)। संयतविशेष-आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानवर्ती संयतों का उल्लेख सर्वत्र क्रम से अपूर्वकरण-प्रविष्ट-शुद्धिसंयत, अनिवृत्तिबादर-साम्पराय-प्रविष्ट-शुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायिकप्रविष्टशुद्धिसंयत इन नामों से किया गया है।' ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के लिए क्रम से उपशान्तकषाय-वीतराग-छद्मस्थ और क्षीणकषायवीतराग-छद्मस्थ इन नामों का निर्देश किया गया है। तीर्थकर-नाम-गोत्रकर्म ---तीर्थकर नामकर्म का उल्लेख 'तीर्थकर-नाम-गोत्रकर्म' के रूप में भी किया गया है। इसके विषय में धवला में यह शंका उठायी गई है कि नामकर्म के अवयवभूत तीर्थकर प्रकृति का निर्देश 'गोत्र' के नाम से क्यों किया गया । उसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि उच्चगोत्र का अविनाभावी होने से उस तीर्थकर प्रकृति के गोत्रता सिद्ध है। उतितसमान-इस शब्द का अर्थ विवक्षित पर्याय को समाप्त कर अन्यत्र उत्पन्न होना है । यद्यपि धवला में इसका अर्थ स्पष्ट नहीं किया गया है, फिर भी मूलाचार की आ० वसुनन्दी विरचित वृत्ति में उसका वैसा अर्थ किया गया है। षट्खण्डागम में इस शब्द का उपयोग केवल नरकगति में वर्तमान नारकियों के अन्य गति में आते समय किया गया है। आगति-यद्यपि प्रसंग प्राप्त गति-आगति' चूलिका में धवलाकार ने इस शब्द के अर्थ को स्पष्ट नहीं किया है, किन्तु आगे 'प्रकृति अनयोगद्वार' में मनःपर्ययज्ञान के विषय के प्रसंग में सूत्रकार द्वारा व्यवहृत उस शब्द को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि अन्य गति से इच्छित गति में आने का नाम आगति है। इस शब्द का उपयोग केवल नारकियों और देवों के उस गति से तियंचगति व मनुष्यगति में आते समय किया गया है। कालगतसमान---इस शब्द का अर्थ धवलाकार ने 'विनष्ट होते हुए' किया है। इसका उपयोग केवल तिथंचगति में वर्तमान तिर्यचों और मनुष्यगति में वर्तमान मनुष्यों के लिए अन्य १. उदाहरण के रूप में देखिए सूत्र १,१,१६-१८ (पु० १, पृ० १७६-८७) २. उदाहरणस्वरूप देखिए १,१,१६-२० (पु० १) ३. सूत्र ३,३६-४२ (पु०८) ४. कधं तित्थयरस्स णामकम्मावयवस्स गोदसण्णा ? ण, उच्चागोदबंधाविणाभावित्तणेण तित्थ___ यरस्स वि गोदत्तसिद्धीदो।-धवला पु० ८ पृ०७६ ५. उद्वर्तनम् अस्मादन्यत्रोत्पत्तिः । -- मूला० वृत्ति १२-३ ६. देखिए सूत्र १,६-६,७६ व ८७,६३,२०३,२०६,२०६,२१३,२१७ ७. अण्णगदीदो इच्छिदगदीए आगमणमागदी णाम । -धवला पु० १३, पृ० ३४६ ८. नारकियों के लिए सत्र १,६-६,७६-८५ व ८७-६१ आदि तथा देवों के लिए सूत्र १,६-६, १७३-८३ व १८५-८६ आदि । ६. कालगदसमाणा विणवा संत्ता त्ति घेत्तत्वं । -पु. ६, पृ० ४५४ विषेचन-पतति / ४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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