SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उस विभाषा को स्पष्ट करने के लिए प्रकृत में जीवस्थान- चूलिका का उदाहरण उपयुक्त है । वहाँ नौ चूलिकाओं में से प्रथम चूलिका के प्रारम्भ में एक पृच्छासूत्र प्राप्त होता है, जिसमें ये पृच्छायें निहित हैं—- प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव कितनी और किन प्रकृतियों को बाँधता है, कितने काल की स्थितिवाले कर्मों के निमित्त से जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता करता है, अथवा नहीं प्राप्त करता है, कितने काल के द्वारा मिथ्यात्व के कितने भागों को करता है, उपशामना व क्षपणा किन क्षेत्रों में, किसके मूल में व कितने दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय करनेवाले और सम्पूर्ण चारित्र को प्राप्त करनेवाले के होती है (सूत्र १, ६ १, १ ) । इन पृच्छाओं की विभाषा - प्ररूपणा या व्याख्या - में स्वयं सूत्रकार द्वारा नौ चूलिकाओं की प्ररूपणा की गई है । " जैसा कि ऊपर कषायप्राभृत के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा चुका है, आगमग्रन्थों के रचयिताओं की यह पद्धति रही है कि वे प्रथमतः पृच्छासूत्र के रूप में, चाहे वह गाथात्मक हो या गद्यात्मक हो, वर्णनीय विषय की संक्षेप में सूचना करते थे । तत्पश्चात् आगे वे भाष्यगाथाओं या गद्यात्मक सूत्रों द्वारा उसका विस्तारपूर्वक विशेष व्याख्यान किया करते थे । यह पूर्वोल्लिखित पृच्छासूत्र के आधार से निर्मित उन नौ चूलिकाओं की रचना से स्पष्ट हो चुका है । इसके पूर्व भी उसे 'प्रश्नोत्तरशैली' शीर्षक में स्पष्ट किया जा चुका है । कुछ निश्चित शब्दों का प्रयोग आगमग्रन्थों की रचना-पद्धति अथवा उनके व्याख्यान की यह एक पद्धति रही है कि उसमें यथाप्रसंग कुछ नियमित विशिष्ट शब्दों का उपयोग होता रहा है । जैसे— जीवसमास- साधारणतः इस शब्द का उपयोग बादर-सूक्ष्म व पर्याप्त अपर्याप्त एकेन्द्रियादि चौदह जीवभेदों के प्रसंग में किया गया है।" किन्तु प्रस्तुत षट्खण्डागम में उसका उपयोग चौदह गुणस्थानों के अर्थ में किया गया है, यह धवला से स्पष्ट है स्वयं सूत्रकार आचार्य भूतबलि ने भी आगे 'बन्धस्वामित्वविचय' के प्रसंग में पूर्व में ( सूत्र ३ - ३) मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों का नाम निर्देश करते हुए अनन्तर 'एदेसि चोद्दसहं जीवसमासाणं पयडिवोच्छेदो कादव्वो भवदि' ( सूत्र ३-४ ) ऐसा कहकर उन चौदह गुणस्थानों का उल्लेख 'जीवसमास' के नाम से किया है और तदनुसार ही आगे क्रम से उन मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों में कृत प्रतिज्ञा के अनुसार कर्मप्रकृतियों के बन्धव्युच्छेद की प्ररूपणा की है । * १. इसके लिए देखिए धवला पु० ६, पृ० २-४ (विशेषकर पृ० ४ ) २. मूलाचार (१२,१५२-५३ ) में बादर - सूक्ष्म एकेन्द्रियादि १४ जीवभेदों का उल्लेख तो किया गया पर 'जीवसमास' शब्द व्यवहृत नहीं हुआ, वृत्तिकार ने उन्हें 'जीवसमास' ही कहा है । (गो० जीवकाण्ड गाथा ७०-१११ भी द्रष्टव्य हैं ) । ति० प० के प्रायः सभी महाधिकारों में उन १४ जीवभेदों को लक्ष्य करके यथाप्रसंग उस 'जीवसमास' शब्द का व्यवहार हुआ है । ३. जीवाः समस्यन्ते एष्विति जीवसमासाः । तेषां चतुर्दशानां जीवसमासानाम्, चतुर्दशगुण स्थानानामित्यर्थः । धवला पु० १, पृ० १३१ ४. ष० खं०, पु० ८, पृ० ४-५ ४० / षट्खण्डागम - परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy