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उन दोनों गाथासूत्रों के अभिप्राय को अन्तहित करनेवाला एक सूत्र तत्त्वार्थसत्र में भी ध्यान के प्रसंग में प्राप्त होता है। विशेषता उसमें यह है कि दूसरे गाथास्त्र के उत्तरार्ध में जो निर्जरा के कालक्रम का भी निर्देश किया गया है वह उस तत्त्वार्थसूत्र में नहीं किया गया है।
इन गाथासूत्रों की व्याख्या में धवलाकार ने जहाँ ग्यारह गुणश्रेणियों की सूचना की है वहाँ तत्त्वार्थस्त्र के वृत्तिकार आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में असंख्येयगुण निर्जरा में व्यापत उन सम्यग्दृष्टि आदि दस की ही सूचना की है। वहाँ सूत्र में सामान्य से निर्दिष्ट 'जिन' में कोई भेद नहीं किया गया। फिर भी षट्खण्डागम के कर्ता आचार्य भूतबलि ने स्वयं उन गाथासूत्रों के विवरण में 'जिन' के इन दो भेदों का निर्देश किया है.-अधःप्रवृत्त केवलीसंयत और योगनिरोध केवलीसंयत ।'
ये दोनों गाथाएँ शिवशर्मसूरि विरचित कर्मप्रकृति में भी उपलब्ध होती हैं। वहाँ दूसरी गाथा के पूर्वार्ध में जिणे य दुविहे ऐसा निर्देश किया गया है । कर्मप्रकृति में उन गाथाओं की व्याख्या करते हुए आचार्य मलयगिरि ने ग्यारह गुणश्रेणियों का उल्लेख किया है। उन्होंने वहाँ दसवीं गुणश्रेणि सयोगकेवली के और ग्यारहवीं अयोगकेवली के बतलायी है।
उपर्युक्त दो गाथासूत्रों में जिस गुणश्रेणिनिर्जरा और उसके काल का संक्षेप में निर्देश किया गया है उसका स्पष्टीकरण स्वयं सूत्रकार आ० भूतबलि ने आगे २२ गद्यसूत्रों (१७५. ६६) द्वारा किया है । इन गद्यसूत्रों को भी पूर्वोक्त धवलाकारके अभिप्रायानुसार चूणिसूत्र ही समझना चाहिए।
विभाषा
कहीं पर संक्षेप में प्ररूपित दुरवबोध विषय का स्पष्टीकरण स्वयं मूलग्रन्थकार द्वारा 'विभाषा' ऐसी सूचना के साथ भी किया गया है।
सूत्र से सूचित अर्थ के विशेषतापूर्वक विवरण को विभाषा कहते हैं । वह प्ररूपणा-विभाषा और सूत्र-विभाषा के भेद से दो प्रकार की है। सूत्र-पदों का उच्चारण न करके सूत्रसूचित समस्त अर्थ की जो विस्तारपूर्वक प्ररूपणा की जाती है उसका नाम प्ररूपणाविभाषा है । गाथासूत्रों के अवयवस्वरूप पदों के अर्थ का परामर्श करते हुए जो सूत्र का स्पर्श किया जाता है उसे सूत्र-विभाषा कहा जाता है।
१. सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरतानन्तवियोजक-दर्शनमोहक्षपकोपशमोपशान्तमोह-क्षपक-क्षीणमोह
जिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः । त० सू०-४५ २. सूत्र ४,२,७,१८४-८७ (पु० १२, पृ० ८४-८५) ३. क० प्र० उदय गाथा ८-६ । ४. विविहा भासा विहासा, परूवणा णिरूवणा वक्खाणमिदि एयट्ठो ।-धवला पु० ६, पृ० ५ ५. सुत्तेण सूचिदत्थस्स विसेसियूण भासा विहासा विवरणं ति वुत्त होदि । विहासा दुविहा होदि-परूवणाविहासा सुत्तविहासा चेदि । तत्थ परूवणाविहासा णाम सुत्तपदाणि अणुच्चारिय सुत्तसूचिदासेसत्थस्स वित्थरपरूवणा। सुत्तविहासा णाम गाहामुत्ताणमवयवत्थपरामरसमुहेण सुत्तफासो ।-जयध० (क० पा० सुत्त प्रस्तावना पृ० २२)
विवेचन-पद्धति | ३३
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