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को प्रकट करते हुए कहा गया है कि इस भरत क्षेत्र में अवसर्पिणी काल के चौथे दुःषम-सुषम काल में जब तेतीस वर्ष, छह मास और नौ दिन शेष रहे थे तब तीर्थ की उत्पत्ति हुई। इसका अभिप्राय यह है कि बहत्तर वर्ष की आयु वाले भगवान् महावीर जब आषाढ़ कृष्णा षष्ठी के दिन गर्भ में अवतीर्ण हुए उस समय चौथे काल में पचहत्तर वर्ष और साढ़े आठ मास शेष थे । कारण यह कि ७२ वर्ष की उनकी आयु थी तथा उस चौथे काल में साढ़े तीन वर्ष शेष रह जाने पर उन्होंने मुक्ति प्राप्त कर ली थी।
पूर्व में जो यहाँ तीर्थोत्पत्ति के समय ३३ वर्ष ६ मास और 6 दिन चौथे काल में अवशिष्ट बताये गये हैं, उसका अभिप्राय यह है कि ७२ वर्ष की आयु वाले भगवान् महावीर का केवलिकाल ३० वर्ष रहा है । केवलज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर भी गणधर के अभाव में ६६ दिन उनकी दिव्यध्वनि नहीं निकली । इससे उक्त ३० वर्ष में ६६ दिन कम कर देने पर २६ वर्ष, ९ मास, २४ दिन शेष रहते हैं । जब वे मुक्त हुए तब उस चौथे काल में ३ वर्ष, ८ मास और १५ दिन शेष थे। इन्हें उक्त २६ वर्ष, ९ मास और २४ दिन में जोड़ देने पर ३३ वर्ष, ६ मास और ६ दिन हो जाते हैं।'
अन्य किन्हीं आचार्यों के मतानुसार भगवान् महावीर की आयु ७२ वर्ष में ५ दिन और ८ मास कम (७१ वर्ष, ३ मास, २५ दिन) थी। इस मत के अनुसार उनके गर्भस्थकालादि को भी प्ररूपणा धवला में की गयी है, जो संक्षेप में इस प्रकार है---
वर्ष मास दिन गर्भस्थकाल कुमारकाल
७ १२ छद्मस्थकाल १२ केवलिकाल २६ ५ २० समस्त आयु
३ २५ उनके मुक्त होने पर चौथे काल में जो ३ वर्ष, ८ मास और १५ दिन शेष रहे थे उन्हें उस आयु-प्रमाण में जोड़ देने पर उनके गर्भ में अवतीर्ण होने के समय उस चौथे काल में ७५ वर्ष १० मास शेष रहते हैं।'
प्रन्थकर्ता
इस प्रकार अर्थकर्ता की प्ररूपणा के पश्चात् ग्रन्थकर्ता की प्ररूपणाको प्रारम्भ करते हुए अर्थकर्ता से ग्रन्थकर्ता को भिन्न स्वीकार न करने वाले की शंका के समाधान में धवलाकार कहते हैं कि अठारह भाषा और सात सौ कूभाषा रूप द्वादशांगात्मक बीजपदो को जो प्ररूपणा करता है उसका नाम अर्थकर्ता है तथा जो उन बीजपदों में विलीन अर्थ के प्ररूपक बारह की रचना करते हैं उन गणधर भट्टारकों को ग्रन्थकर्ता माना जाता है। अभिप्राय यह है कि बजिपदों के व्याख्याता को ग्रन्थकर्ता समझना चाहिए । यह अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ता में भेद है। यहाँ बजिपदों के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा गया है कि जो शब्दरचना में संक्षिप्त होकर
१. धवला पु० ६, पृ० ११६-१२१ २. वही, पृ० १२१-१२६ ८ / षट्लण्डागम-परिशीलन
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