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________________ समझना चाहिए। इन पर्यायार्थिक नयों को छोड़कर दूसरे शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय हैं । आगे अर्थनयों का स्वरूप स्पष्ट किया गया है, तदनुसार जो नय अर्थ और व्यंजन पर्यायों से भेद को प्राप्त तथा लिंग, संख्या, काल पुरुष और उपग्रह के भेद से भेद को न प्राप्त होने वाले केवल वर्तमानकालीन पदार्थ का निश्चय कराते हैं उन्हें अर्थनय कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि अर्थनयों में शब्द के भेद से अर्थ का भेद नहीं हुआ करता है। जो शब्द के भेद से वस्तु के भेद को ग्रहण किया करते हैं वे व्यंजननय कहलाते हैं। प्रकृत में ऋजुसूत्र को अर्थनय कहा गया है। कारण यह है कि वह 'ऋजु प्रगुणं सूत्रयति सूचयति' इस निरुक्ति के अनुसार वर्तमानकाल बर्ती सरल अर्थ का सूचक है। इस प्रसंग में यह शंका की गयी है कि नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन नय भी तो अर्थनय है। इसके उत्तर में कहा गया है कि अर्थ में व्याप्त होने से वे भले ही अर्थनय हों, किन्तु वे पर्यायाथिकनय नहीं हो सकत; क्योकि उनका प्रमुख विषय द्रव्य है। ___ व्यंजननय शब्द, समभिरूढ और एवम्भूतनय के भेद से तीन प्रकार का है। इनका स्वरूप जिस प्रकार सर्वार्थसिद्धि आदि में प्ररूपित है, लगभग धवला में भी यहाँ उनके स्वरूप की प्ररूपणा उसी प्रकार की गयी है। एवम्भूतनय के सम्बन्ध में यहाँ यह विशेष स्पष्ट किया गया है कि इस नय की दृष्टि में पदों का समास सम्भव नहीं है, क्योंकि भिन्न कालवर्ती और भिन्न अर्थ के वाचक पदों के एक होने का विरोध है। उनमें परस्पर अपेक्षा भी सम्भव नहीं है, क्योंकि वर्ण, अर्थ, संख्या और काल आदि से भेद को प्राप्त पदों की अन्य पदों के साथ अपेक्षा नहीं हो सकती। इससे सिद्ध है कि इस नय की दृष्टि में पदों का समुदायल्प वाक्य भी नहीं घटित नहीं होता है । अभिप्राय यह हुआ कि एक पद एक ही अर्थ का वाचक है, इस प्रकार से जो निश्चय कराता है उसे एवम्भूतनय समझना चाहिए । इस नय की अपेक्षा एक 'गो' शब्द अनेक अर्थों में वर्तमान नहीं रहता, क्योंकि एक स्वभाववाले एक पद के अनेक अर्थों में वर्तमान का विरोध है। प्रकारान्तर से यहाँ पुनः एवम्भूतनय के लक्षण को प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि जो पदगत वर्षों के भेद से अर्थभेद का निश्चायक होता है वह एवम्भूतनय कहलाता है, क्योंकि वह शब्दनिरुक्ति (एवं भेदे भवनादेवम्भूतः) के अनुसार इस प्रकार (भेद में) हुआ है' उसी में उत्पन्न है; अर्थात् उसो को विषय करता है। आगे धवला में नयों के विषय में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि संक्षेप में से हैं, पर अवान्तर भेदों से वे असंख्यात है। व्यवहर्ता जनों को उनके विषय में जानकारी अवश्य होना चाहिए, क्योंकि उनके जाने बिना न तो वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन किया जा सकता है और न उसे समझा भी जा सकता है। इस अभिप्राय की पुष्टि आगे वहाँ दो गाथाओं को उद्धृत करते हए उनके आश्रय से की गई है। इस प्रकार इस प्रसंग में धवलाकार द्वारा नयों के विषय में विशद चर्चा की गयी है।' १. धवला पु० १, पृ० ८३-६१ (धवला में ग्रन्थावतार के प्रसंग में उपक्रम के भेदभूत इन नयों के विषय में पुनः विस्तारपूर्वक विचार किया गया है-देखिए पु० ६, पृ० १६२-८३) षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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