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प्रसंगवश वहाँ एक यह शंका की गयी है कि नयों को प्रमाण कैसे कहा जा सकता है । इसके उत्तर में कहा गया है कि प्रमाण के कार्यरूप नयों को उपचार से प्रमाण मानने में कुछ भी विरोध नहीं है । उक्त पाँच प्रकार के प्रमाण में 'जीवस्थान' को भावप्रमाण कहा गया है । वह भावप्रमाण मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान के भेद से पाँच प्रकार का है। उनमें 'जीवस्थान' श्रुतभावप्रमाण के रूप में निर्दिष्ट है ।
यहीं पर आगे प्रसंगप्राप्त एक अन्य शंका का समाधान करते हुए प्रकारान्तर से प्रमाण ये छह भेद भी निर्दिष्ट किये गये हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षत्र, काल और भावप्रमाण । इनका सामान्य स्पष्टीकरण करते हुए आगे भावप्रमाण के मतिभावप्रमाण आदि उपर्युक्त पाँच भेदों का पुनः उल्लेख किया है एवं जीवस्थान को भाव की अपेक्षा श्रुतभावप्रमाण तथा द्रव्य की अपेक्षा संख्यात, असंख्यात व अनन्तरूप शब्दप्रमाण कहा गया है । "
( ४ ) वक्तव्यता - यह स्वसमयवक्तव्यता, परसमयवक्तव्यता और तदुभयवक्तव्यता के भेद से तीन प्रकार की है । प्रकृत जीवस्थान में अपने ही समय की प्ररूपणा होने से स्वसमयवक्तव्यता कही गई है । "
(५) अर्थाधिकार- यह प्रमाण, प्रमेय और तदुभय के भेद से तीन प्रकार का है। यहाँ जीवस्थान में एकमात्र प्रमेय की प्ररूपणा के होने से एक ही अर्थाधिकार कहा गया है । " इस प्रकार यहाँ पूर्वोक्त चार प्रकार के अवतार में से प्रथम 'उपक्रम' अवतार की चर्चा समाप्त हुई ।
२.
निक्षेप - अवतार के उक्त चार भेदों में यह दूसरा है। यह नामजीवस्थान, स्थापनाजीवस्थान, द्रव्यजीवस्थान और भावजीवस्थान के भेद से चार प्रकार का है। इनमें भावजीवस्थान के दो भेदों में जो दूसरा नोआगमभावजीवस्थान है उसे यहाँ प्रसंगप्राप्त निर्दिष्ट किया गया है । वह मिथ्यादृष्टि, सासादन आदि चौदह जीवसमास ( गुणस्थान) स्वरूप है ।
३. नय — अवतार का तीसरा भेद नय है । नयों के बिना चूँकि लोकव्यवहार घटित नहीं होता है, इसीलिए धवलाकार ने नयों के निरूपण की प्रतिज्ञा करते हुए प्रथमतः नयसामान्य के लक्षण में यह कहा है कि प्रमाण द्वारा परिगृहीत पदार्थ के एक देश में जो वस्तु का निश्चय होता है उसका नाम नय है। उसके मूल में दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय । इनमें द्रव्यार्थिक नैगम, संग्रह और व्यवहार नय के भेद से तीन प्रकार का तथा पर्यायार्थिकनय सामान्य से अर्थनय और व्यंजननय के भेद से दो प्रकार का है ।
यहाँ द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों में भेद को स्पष्ट करते हुए यह बतलाया गया है कि जिन नयों का मूल आधार ऋजुसूत्रवचन का विच्छेद है वे पर्यायार्थिक नय कहलाते हैं । ऋजुसूत्रवचन से अभिप्राय वर्तमानवचन का है । तात्पर्य यह है कि जो नय ऋजुसूत्रवचन के विच्छेद से लेकर एक समय पर्यन्त वस्तु की स्थिति का निश्चय कराते हैं उन्हें पर्यायार्थिक नय
१. वही, पृ० ८०-८२
२. धवला पु० १, पृ० ८८ ३. वही,
४. वही. पृ० ८३
३०० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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