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________________ ४. अनुगम-नय प्ररूपणा के समाप्त होने पर जीवस्थान के अवतारविषयक उन उपक्रमादि चार भेदों में से चौथा भेद 'अनुगम' शेष रहता है। उसके विषय में धवलाकार ने 'अनुगमं वत्तइस्सामो' ऐसी सूचना करते हुए अवसरप्राप्त "एत्तो इमेसि चोहसण्ह" आदि सूत्र (१,१,२) की ओर संकेत किया है।' इतना संकेत करके यहाँ धवला में उसके स्वरूप को स्पष्ट नहीं किया गया है। पर आगे पुनः प्रसंगप्राप्त उस अनुगम के लक्षण को प्रकट करते हुए धवलाकार ने यह कहा है-"जम्हि जेण वा वत्तव्वं परुविज्जदि सो अणुगमो।" अर्थात् जहाँ पर या जिसके द्वारा विवक्षित विषय की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम अनुगम है। निष्कर्ष के रूप में आगे यह बतलाया गया है कि 'अधिकार' संज्ञावाले अनयोगद्वारों के जो अधिकार होते हैं उन्हें अनुगम कहा जाता है। जैसे-'वेदना' अनुयोगद्वार में 'पदमीमांसा' आदि अधिकार (देखिए पु० १०, पृ० १८ व पु० ११, पृ० १-३, ७५-७७ आदि)। यह अनुगम अनेक प्रकार का है, क्योंकि इसकी संख्या नियत नहीं है। प्रकारान्तर से वहाँ 'अथवा अनुगम्यन्ते जीवदयः पदार्थाः अनेनेत्यनुगमः' ऐसी निरुक्ति करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया है कि जिसके द्वारा जीवादि पदार्थ जाने जाते हैं उसका नाम अनुगम है । जीवस्थानगत सत्प्ररूपणावि = अनुयोगद्वारों व चूलिकाओं का उद्गम ऊपर धवलाकार ने 'अनुगम' के प्रसंग में जिस सूत्र की ओर संकेत किया है वह पूरा सूत्र इस प्रकार है-- "एत्तो इमेसिं चोद्दसण्हं जीवसमासाणं मग्गणट्ठदाए तत्थ इमाणि चोद्दस चेय हाणाणि णादब्वाणि भवति ।" -सूत्र २, पृ० ६१ इस सूत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने सूत्र में प्रयुक्त 'एत्तो' (एतस्मात्) पद से प्रमाण को ग्रहण किया है। इस पर वहाँ यह शंका की है कि यह कैसे जाना जाता है कि 'एत्तो' इस सर्वनाम पद से प्रमाण विवक्षित है। उत्तर में यह कहा गया है कि प्रमाणभूत 'जीवस्थान' का चूंकि अप्रमाण से अवतार होने का विरोध है, इसी से जान लिया जाता है कि सूत्र में प्रयुक्त 'एत्तो' पद से प्रमाण अभीष्ट रहा है । इस प्रसंग में यहाँ प्रमाण के दो भेद निदिष्ट किये गये हैं-द्रव्यप्रमाण और भावप्रमाण। इनमें द्रव्यप्रमाण से संख्यात, असंख्यात और अनन्तरूप द्रव्य जीवस्थान का अवतार हुआ है। भावप्रमाण पाँच प्रकार का है-आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल भावप्रमाण । इनमें ग्रन्थ की अपेक्षा श्रुतभावप्रमाण को और अर्थ की अपेक्षा केवल भावप्रमाण को प्रकृत कहा गया है। अर्थाधिकार के प्रसंग में उस (श्रुत) के अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट ये दो अधिकार निर्दिष्ट किये गये हैं। उनमें अंगबाह्य के य चौदह अर्थाधिकार कहे गये हैं—सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, १. धवला पु० १, पृ० ६१ २. धवला पु० ६, पृ० १४१ ३. धवला पु० १, पृ० ६२-६५ ३७२ / षटखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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