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________________ वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषेधिका। धवला में आगे इन सबके स्वरूप को भी प्रकट किया गया है।' ___ अंगप्रविष्ट का अधिकार बारह प्रकार का निर्दिष्ट है-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, नाथधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृतदशा, अनुत्तरौपपादिदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद। आगे इनके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए प्रकृत में दृष्टिवाद को प्रयोजनीभूत कहा गया है। पूर्व पद्धति के समान उक्त दृष्टिवाद के प्रसंग में भी आनुपूर्वी, नाम. प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार इन पाँच उपक्रमभेदों का विचार करते हुए नाम के प्रसंग में दृष्टिवाद को गुणनाम कहा गया है, क्योंकि वह दृष्टियों (विविध दर्शनों) का निरूपण करनेवाला है। ___अर्थाधिकार के ये पाँच भेद निर्दिष्ट किये गये हैं--परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चलिका । इनमें परिकर्म के चन्द्रप्रज्ञति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीप-सागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति इन पाँच उपभेदों का निर्देश कर उनके प्रतिपाद्य विषय का भी क्रमशः विवेचन है। ___ परिक्रमादि उपर्युक्त पाँच भेदों में चौथा पूर्वगत है। उसे यहाँ प्रसंगप्राप्त कहा गया है।' अर्थाधिकार के प्रसंग में उसके ये चौदह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-उत्पादपूर्व, अग्रायणीयपूर्व, वीर्यानुप्रवाद, अस्ति-नास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्याननामध्येय, विद्यानुवाद, कल्याणनामध्येय, प्राणावाद, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार। इनमें से प्रत्येक में वर्णित विषय का परिचय कराते हुए उनमें कितने 'वस्तु' व 'प्राभूत' नाम के अधिकार हैं तथा प्रत्येक के पदों का प्रमाण कितना है, इस सबका विवेचन है।" ___इन चौदह पूर्वो में यहाँ दूसरे अग्रायणीयपूर्व को अधिकार प्राप्त बतलाते हुए उसके भी चौदह अर्थाधिकार निर्दिष्ट किये गये हैं-पूर्वान्त, अपरान्त, ध्रुव, अध्र व, चयनलब्धि, अर्धोपम, प्रणिधिकल्प, अर्थ, भौम, व्रतादि, सर्वार्थ, वाल्पनिर्याण, अतीत काल में सिद्ध व बद्ध और अनागत काल में सिद्ध व बद्ध। इन्हें 'वस्तु' नाम का अधिकार कहा गया है। इन चौदह में यहाँ पाँचवाँ चयनलब्धि नाम का वस्तु अधिकार प्रसंगप्राप्त है। ___ अर्थाधिकार के प्रसंग में प्रकृत चयनलब्धि में बोस अर्थाधिकार निर्दिष्ट किये गये हैं, पर उन के नामों का यहाँ उल्लेख नहीं है। उन बीस को प्राभृत नामक अधिकार समझना चाहिए। उनमें यहाँ चतुर्थ प्राभूत अधिकार प्रसंगप्राप्त है। नाम के प्रसंग में यहाँ यह कहा गया है कि वह चूंकि कर्मों की प्रकृति-स्वरूप का वर्णन करनेवाला है, इसलिए उसका 'कर्मप्रकृतिप्राभृत' यह गुण नाम (गौण्यपद नाम) है। उसका १. धवला पु० १, पृ०६६-६८ २. वही, पृ० १०८-१० ३. दृष्टिवाद के ही समान आगे पूर्वगत व अग्रायणीय पूर्व आदि प्रत्येक के विषय में पृथक पृथक् उन पाँच उपक्रम भेदों का प्रसंगानुसार विचार किया गया है, व्याख्या की यही पद्धति रही है। ४. धवला पु० १, पृ० ११४-२२ षट्खण्डागम पर होकाएँ। ३७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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